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________________ ४१५ रत्नमाला मुहर्ताद गालितं तोयं प्रासुकं प्रहरद्वयम् । उष्णोदकमहोरात्रं ततः सम्मूच्छितो भवेत् ॥६१ तिलतण्डुलतोयं च प्रासुकं भ्रामरीगृहे । न पानाय मतं तस्मान्मुखशुद्धिर्न जायते ॥६२ पाषाणोत्स्फुटितं तोयं घटीयन्त्रण ताडितम् । सद्यः सन्तप्तवापीनां प्रासुकं जलमुच्यते ॥६३ देवर्षीणां प्रशौचाय स्नानाय च गृहाथिनाम् । अप्रासुकं परं वारि महातीर्थजमप्यदः ॥६४ सर्वमेव विधि नः प्रमाणं लौकिकः सताम् । यत्र न व्रतहानिः स्यात् सम्यक्त्वस्य च खण्डनम् ॥६५ चर्मपात्रगतं तोयं घृततैलं च वर्जयेत् । नवनीतं प्रसूनादिशाकं नाद्यात कदाचन ॥६६ ।। यो नित्यं पठति श्रीमान् रत्नमालामिमां पराम् । स शुद्धभावनो नूनं शिवकोटित्वमाप्नुयात् ॥६७ वस्त्रसे गाला हआ जल एक महतके पश्चात्, प्रासुक जल दो पहरके पश्चात् और उष्णोदक जल एक दिन-रातके पश्चात सम्मर्छन जीवोंसे यक्त हो जाता है॥६१। तिल और चावलोंका धोवन गोचरी किये जानेवाले घरमें ही प्रासुक है, किन्तु वह पीने के लिए नहीं माना गया है, क्योंकि उससे मुखशुद्धि नहीं होती है ॥६२।। पत्थरोंसे टकराया हुआ, घटी यंत्र (अरहट) से ताडित और सर्यकी धपसे तत्काल सन्तप्त वापिकाओंका जल प्रासक कहा जाता है॥६३॥ वह प्रासक जल देवर्षियोंके शौचके लिए तथा गृहस्थोंके स्नानके लिए माना गया है। उसके अतिरिक्त गंगादि महातीर्थोंका भी जल अप्रासक माना गया है॥६४॥ जैनोंके वह सभी लौकिक विधान प्रमाण माने गये हैं, जिनके करनेपर व्रतकी हानि न हो और सम्यक्त्वका खंडन न हो ॥६५।। चमड़ेके पात्रमें रखा जल, घृत और तेलका परित्याग करना चाहिए। तथा नवनीत (मक्खन) और पुष्पादिकी शाक कभी भी नहीं खानी चाहिए ॥६६॥ जो शुद्ध भावनावाला श्रीमान् इस परम श्रेष्ठ रत्नमालाको नित्य पढ़ता है, वह निश्चयसे शिवकोटित्वको (मुक्तिधामको) प्राप्त करेगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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