SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 452
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वैराङ्गचरित-गत श्रावकाचार दण्डपाशविडालाश्च विषशस्त्राग्निरज्जवः । परेभ्यो नैव देयास्ते स्वपराघातहेतवः ॥१३ छेदं भेदवधौ बन्धगुरुभारातिरोपणम् । न कारयति योऽन्येषु तृतीयं तद्गुणवतम् ॥१४ शरणोत्तममाङ्गल्यं नमस्कारपुरस्सरम् । व्रतवृद्धयै हृदि ध्येयं सन्ध्ययोरुभयोः सदा ॥१५ समता सर्वभूतेषु संयमः शुभभावनाः । आतंरौद्रपरित्यागस्तद्धि सामायिकं व्रतम् ॥१६ मासे चत्वारि पर्वाणि तान्युपोष्याणि यत्नतः । मनोवाक्कायसंगुप्त्या स प्रोषधविधिः स्मृतः ॥१७ चतुर्विधो वराहारः संयतेभ्यः प्रदीयते । श्रद्धादिगुणसंपत्त्या तत्स्यादतिथिपूजनम् ॥१८ बाह्याभ्यन्तरनैःसङ्ग याद् गृहीत्वा तु महावतम् । मरणान्ते तनुत्यागः सल्लेखः स प्रकोयते ॥१९ इत्येतानि व्रतान्यत्र विधिना द्वादशापिये। परिपाल्य तनुं त्यक्त्वा ते दिवं यान्ति सद्वताः ॥२० सौधर्मादिकल्पेषु संभूय विगतज्वराः । तत्राष्टगुणमैश्वर्य लभन्ते नात्र संशयः ॥२१ अप्सरोभिश्चिरं रत्वा वैक्रियातनुभासुराः । भोगानतिशयान् प्राप्य निश्च्यवन्ते सुरालयात् ॥२२ हरिभोजोग्रवंशे वा इक्ष्वाकूणां तथान्वये । उत्पद्यैश्वर्यसंयुक्ता ज्वलन्त्यादित्यवद्भुवि ।।२३ विरक्ताः कामभोगेषु प्रवज्यवं महाधियः । तपसा दग्धकर्माणो यास्यन्ति परमं पदम् ॥२४ (वराङ्गचरित सर्ग १५ से) करनेका नियम लेना, सो भोगोपभोग संख्यान नामका दूसरा गुणव्रत है ।। १२ ।। दण्ड, पाश, बिलाव, विष, शस्त्र, अग्नि, रस्सो आदिक जो स्व और परके घातके कारण हैं, उन्हें दूसरोंको नहीं देना चाहिए । जो दूसरोंके द्वारा अन्य प्राणियोंके अंगोंके छेदन, भेदन, वध-बन्धन और अतिभारोपणको नहीं कराता है, उसे अनर्थदण्ड त्याग नामका तीसरा गुणव्रत कहते हैं ॥ १३-१४ ॥ पंचपरमेष्ठीको नमस्कार-पूर्वक अर्हन्त, सिद्ध, साधु और केवलिप्रज्ञप्त धर्मरूप चार मंगल, उत्तम और शरणभूतों को गृहीत व्रतोंको वृद्धिके लिए प्रातः और सायंकालीन दोनों सन्ध्याओंमें सदा ध्याना चाहिए ।। १५ ॥ सर्व प्राणियों पर समताभाव रखना, संयम पालन करना और शुभ भावना करना, तथा आरौिद्र भावोंका त्याग करना सो सामायिक नामका प्रथम शिक्षावत है ।। १६ । प्रत्येक मासके चारों पर्वोमें प्रयल के साथ मन वचन कायको वशमें रखते हुए उपवास करना चाहिए । यह प्रोषधोपवासव्रत कहा गया है ॥ १७ ॥ श्रद्धा आदि गुणोंके साथ संयमी जनोंके लिए जो चार प्रकारका उत्तम निर्दोष आहार दिया जाता है, वह अतिथि पूजन नामका तीसरा शिक्षावत है ।। १८ ॥ बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रहका त्याग करके महावतोंको ग्रहणकर मरणके समय शरीरका त्याग करना सो सल्लेखना नामका चौथा शिक्षाव्रत कहा गया है ।। १९ ।। इस प्रकार विधिपूर्वक उन बारह व्रतोंको पालन करके जो सद्बती श्रावक शरीरका त्याग कर स्वर्गको जाते हैं, वे सौधर्मादि कल्पोंमें उत्पन्न होकर ज्वरादि शारीरिक व्याधियोंसे रहित होते हुए अणिमादि आठ गुणरूप ऐश्वर्यको पाते हैं, इसमें सन्देह नहीं है ।। २०-२१ ।। वे जीव प्रकाशवान वैक्रियिक शरीरको धारणकर अप्सराओंके साथ अतिशययुक्त भोगोंको भोगकर देवलोकसे च्युत होते हैं और फिर इस मध्यलोकमें आकर हरिवंश, भोजवंश, उग्रवंश, इक्ष्वाकुवंश तथा इसी प्रकारके उत्तम वंशोंमें उत्पन्न होकर राज्य-ऐश्वर्य में संयुक्त होकर सूर्यके समान प्रतापको प्राप्त होते हैं ।। २२-२३ ॥ अन्तमें वे महाबुद्धिमान् काम भोगोंसे विरक्त होकर और मुनि-दीक्षा ग्रहण करके तपके द्वारा कर्मोको दग्ध करते हुए परम शिवपदको जाते हैं ॥ २४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy