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________________ ४०० श्रावकाचार-संग्रह तद्-वंशजातो वरवर्धमानः स निर्जितो बन्धुजनेरुदारः । तेन स्वयं लज्जितमानसेन त्यक्तं स्वराज्यं पुरदेशयुक्तम् ॥११ स्वगोत्रमित्र नवभिः शतैश्च विशिष्ट सेनापतिमन्त्रिवर्गः । सर्वे क्षमन्तु क्षमयामि सर्वं स्वयं वने प्रव्रजितो भवामि ॥१२ तत्सर्वमाकर्ण्य तयोर्भवन्तं स्वलज्जया स्नेहवशाच्च कैश्चित् । सर्वे मिलित्वा भणितं ह्ययोग्यं तत्पञ्चभिक्षाटन (?) मानभङ्गात् ॥ १३ त्वया सह प्रव्रजिता भवन्ति स्वगोत्रमित्रा (?) गुरुबन्धुवर्गाः । तदा च देशे प्रसरेति वार्ता हि शक्त्यभावाच्च तपोवनस्थाः ॥१४ गृहस्थितैर्लम्बितबोधतत्त्वैः सम्यक्त्वशीलव्रत संयुतैश्च । स्वर्गोऽपि मोक्षो भवति क्रमेण निःसंशयं पूर्वजिनोक्तमेतत् ॥१५ निजवंशोपकरणार्थ वणिग्वृत्तिश्च तैर्धृता । निरवद्यमिति ज्ञात्वा प्राप्ताः सौराष्ट्रमण्डलम् ॥१३ सौराष्ट्रदेशे बलभीनगर्यां वाणिज्यशुद्धं कृतमादरेण । चक्रेश्वरीदेविवरप्रसादात् सुसाधकः सिद्धरसोऽपि सिद्धः ॥१७ द्रव्येणैव जिनेन्द्रमन्दिरवरं संस्थापितं सुन्दरं तं दृष्ट्वा खरवैरिदर्पमथनः पृथ्वीश्वरो जल्पति । यत्पुण्यं वरशान्तिदेवतिलकाज्जातं तदेव ध्रुवं पुण्यं नैव ददासि यास्यसि वनं त्यक्त्वा च देशं पुरम् ॥१८ तं ज्ञात्वा वर-वर्धमानवणिजः क्रुद्धोऽप्ययं जल्पति राजन् राजकुले धनश्रियमदेतिष्ठामि नोऽहं सदा । कर्तव्यं निजनाम सुंदरपुरं (?) आज्ञां स्वगोत्रान्वितां उद्वासं सममिश्रितेन भवने देशं मदीयं पुरम् ॥ १९ उत्पन्न हुए, जो कि चक्रवर्ती भी थे और कामदेव भी थे ||१०|| उनके वंशमें श्रेष्ठ वर्धमान हुए । वह उदार पुरुष बन्धुजनोंके द्वारा जीत लिया गया। तब लज्जित चित्त होकर उसने स्वयं नगर और देश से युक्त अपने राज्यको छोड़ दिया || ११|| तब वह सबको क्षमा कर और सबसे क्षमा मांगकर नौसी स्वगोत्रीय जनों और मित्रोंके साथ विशिष्ट सेनापति और मंत्रिवर्गों के साथ यह कह कर निकला कि में वनमें जाकर स्वयं दीक्षित होता हूँ || १२|| यह सब सुनकर अपनी लज्जासे और उनके स्नेहके वशसे कितने ही लोगोंने मिलकर उनसे प्रार्थना की कि पाँच घरोंसे भिक्षा माँग कर जीवन-यापन करना अयोग्य है, इसमें मानका भंग होता है ||१३|| उन लोगोंने कहा – तुम्हारे साथ अपने गोत्रके लोग, मित्रगण, गुरुजन और बन्धुवर्ग दीक्षित होता है, यह बात सारे देश में फैल गई है । किन्तु वे शक्ति अभावसे वनमें रह रहे हैं, अर्थात् मुनिदीक्षा ग्रहण करने में असमर्थ हैं ||१४ ॥ अतः तत्त्वोंका परिज्ञान करके सम्यक्त्वके साथ व्रत और शीलसे संयुक्त होकर घरमें रहें । इस श्रावकधर्मसे स्वर्ग प्राप्त होता है और पीछे अनुक्रमसे मोक्ष भी प्राप्त होता है, यह वात निःसंशय रूपसे जिनदेवने कही हूँ ||१५|| तब उन लोगोंने अपने वंशके उद्धारके लिए वणिग्वृत्ति धारण की और सौराष्ट्र देश निरवद्य है, ऐसा जानकर वे वहाँ पहुँचे ||१६|| सौराष्ट्र देशमें जो वलभी नगरी है, वहाँपर आदरके साथ उन्होंने शुद्ध वाणिज्य करना प्रारम्भ किया । वहाँपर उन्हें चक्र श्वरी देवीके वरके प्रसादसे सर्वकार्यों को सिद्ध करनेवाला सिद्धरस भी सिद्ध हो गया || १३|| तब वहाँपर उन्होंने अपने द्रव्यसे उत्तम सुन्दर जिनेन्द्रदेवका मन्दिर स्थापित किया । उसे देख कर प्रखर वैरियोंके दर्पका मथन करनेवाला राजा बोला- उत्तम शान्तिनाथ देवके प्रसादसे जो पुण्य तुमने उपार्जन किया है, यदि वह पुण्य तुम मुझे नहीं देते हो, तो यह नगर और देश छोड़कर तुम्हें वनमें जाना पड़ेगा || १८ || यह जानकर क्रोधित हुए उस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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