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भव्यमार्गोपदेश उपासकाध्ययन
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इति करो तदा काले निःसृतो पूर्वजैः सह । प्राप्तो मालवकं देशं रसधामपुरान्वितम् ॥२०
धारानगर्या वरराजवंशे वोरालयालडूतवीरभद्रः ।
ज्ञात्वा गजेन्द्राख्यपुराधिपोऽयं स पूजितो मानधनैश्च रत्नैः ॥२१ निजनामाङ्कितं तत्र पुरं गोत्रतयाऽन्वितम् । कृतं तद्वर्ततेऽद्यापि वर्धमानपुरं महत् ॥२२ तस्मिन् वंशे महाशुद्ध दुर्गासहो नरोत्तमः । पुर्यादित्यो हि तज्जातस्तत्सुतो देवपालकः ॥२३ देवपालसुतो जातः स्थातपः श्रेष्ठि चोच्यते । तत्प्रसूतास्त्रयः पुत्रा: धनेशः पोमणस्तथा ॥२४ लाखणश्रेष्ठि विख्यात इन्द्रशीलक्षमान्वितः । तत्सुतो हि महाप्राज्ञः यशोधरपवाङ्कितः ॥२५
(अपूर्ण)
वर्धमान वैश्यवरने कहा-हे राजन्, मैं राजकूलमें धन-लक्ष्मोके मदमें कभी नहीं रहता हूँ। अपने गोत्रजोंकी आज्ञासे अपने नामसे युक्त सुन्दर नगरका निर्माण मुझे करना चाहिए और अपने देश और नगरके भवनों में सबके साथ जाकर मुझे निवास करना चाहिए ॥१९|| इस प्रकार क्रोधित होकर वह अपने पूर्वजोंके साथ सौराष्ट्र देशसे निकला और रसोंके स्थानभत नगरोंसे युक्त मालव देशको प्राप्त हुआ ॥२०॥ वहाँ मालवदेशमें धारानगरीमें श्रेष्ठ राजवंशमें वीरलक्ष्मीसे अलंकृत वीरभद्र नामका जो गजेन्द्रनगरका स्वामी राजा था, उसे जाकर सन्मानरूप धनसे और रत्नोंसे पूजा ॥२१॥
वहां पर अपने नामसे अंकित गोत्ररूपसे युक्त 'वर्धमानपुर' नामका महानगर बसाया, जो कि आज भी विद्यमान है ॥२२॥ उसी महान् विशुद्ध वंशमें दुर्गसिंह नामका नरोत्तम हुआ। उससे पुर्यादित्य हुआ और उसका देवपालक पुत्र उत्पन्न हुआ ॥२३॥ देवपालका पुत्र स्थातप नामका सेठ उत्पन्न हुआ। उसके तीन पुत्र उत्पन्न हुए-धनेश, पोमाण और लाखण सेठ । इनमें विख्यात लाखण सेठ इन्द्रके समान शील और क्षमासे युक्त था । उसका पुत्र महान् बुद्धिमान् यशोधर नामसे अंकित उत्पन्न हुमा ॥२४-२५॥
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