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________________ षष्ठः परिच्छेदः देवताराधनं ध्यानं साधयेन्मन्त्रयुक्तिभिः । व्रतादिग्रहणं दानं प्रतिष्ठाविधिमाविकम् ॥ ३०३ प्रोषधं व्रतसंयुक्तं कार्यं सर्वार्थसिद्धिदम् । प्रोषधेन विना सिद्धिनं भवतीति निश्चितम् ॥ ३०४ प्रोषधं शमभावार्थ भावात्कर्मविनाशनम् । कर्मनाशे च सुज्ञानं मोक्षदं सुफलप्रदम् ॥३०५ चतुर्दश्यां चाष्टमीपर्वण्युपवासमथवा बुधैः । एकभक्तं रसत्यागं एकानं काञ्जिकोदनम् ॥ ३०६ धर्मध्यानं दिवा कार्य रात्रौ च जिनमन्दिरे । निजवित्तानुसारेण पात्रे दानं समाचरेत् ॥३०७ पानं हि त्रिविधं प्रोक्तं कनिष्ठं मध्यमोत्तमम् । निरवद्यं सदा देवं चतुर्भेदं जिनोदितम् ॥ ३०८ आहारं शास्त्र भैषज्यं अभयं सर्वदेहिषु । सुखार्थं ज्ञानरूपार्थं निर्भयार्थं च स्वात्मनः ॥ ३०९ .... ॥३३९ अयोग्यं हि यदा द्रव्यं दत्तं पात्रेषु सन्मते । संयमास्तस्य नश्यन्ति दाता पात्रस्य नाशकः ॥ ३४० पात्रदानं कृतं येन मिध्यादृष्टिनरेण वै । उत्तमभोगभूमौ स भोगान् भुनक्ति नान्यथा ॥ ३४१ दानस्थाने कृतं सूत्रं भावपूजादिकं मया । तामत्र हि प्रवक्ष्यामि देवपूजाविधि ध्रुवम् ॥३४२ राजतं वा हि सौवर्ण शौक्तिकं स्फटिकोपलम् । जिनबिम्बं विनिर्माप्य प्रतिष्ठाप्य च पूजयेत् ||३४३ देवताकी आराधना, ध्यान, व्रतादिका ग्रहण, दान और प्रतिष्ठा विधि आदिको मंत्र-युक्तिसे सिद्ध करे || ३०३ ॥ सर्व अर्थकी सिद्धिको देनेवाला प्रोषध व्रत संयुक्त करना चाहिए, क्योंकि प्रोषधके विना सिद्धि नहीं होती है, यह निश्चित है || ३०४ | प्रोषध शमभावकी प्राप्तिका कारण है और शमभावसे कर्मोंका विनाश होता है । कर्मोंका विनाश होनेपर मोक्षरूप उत्तम सुफलको देनेवाला केवलज्ञानरूप सुज्ञान प्राप्त होता है ||३०५|| चतुर्दशी और अष्टमीके दिन उपवास करना प्रोषधव्रत है । अथवा यदि शक्ति न हो तो एकाशन, रसोंका परित्याग, एक अन्नका भोजन अथवा कांजीयुक्त भातको खानेका भी विधान विद्वानोंने किया है ||३०६ || दिनमें धर्मध्यान करे, रात्रिमें जिनमन्दिरमें निवास करे और अपने धनके अनुसार दानको देवे ॥३०७॥ पात्र उत्तम, मध्यम और जघन्यके भेदसे तीन प्रकारके कहे गये हैं । इनको सदा निर्दोष जिन भाषित चार प्रकारका दान देना चाहिए || ३०८ || सुखकी प्राप्तिके लिए आहारदानको, ज्ञानकी प्राप्तिके लिए ज्ञान दानको, रूप-सौन्दर्य और नीरोगता प्राप्तिके लिए भैषज्य दानको और निर्भय रहनेके लिए अभयदानको सर्व प्राणियोंमें देना चाहिए || ३०९ || ॥३३९॥ हे सद् बुद्धिशालिन्, जब पात्रोंमें अयोग्य द्रव्यका दान दिया जाता है, तब उनका संयम नष्ट हो जाता है । इस प्रकार अयोग्य द्रव्यका दाता पात्रका विनाशक होता है || ३४०॥ जिस मिथ्यादृष्टि भी मनुष्यने पात्र दान किया है, वह उत्तम भोगभूमिमें भोगोंको भोगता है, यह बात अन्यथा नहीं है ||३४१|| दानके स्थानपर मैंने जो भावपूजादिका सूत्ररूपसे उल्लेख किया था उस देवपूजाविधिको में यहाँपर ध्रुवरूपसे कहूँगा ॥ ३४२ ॥ चाँदीकी, या सुवर्णकी, या मोतीकी या स्फटिक पाषाणकी जिनमूर्तिका निर्माण कराके और उसकी प्रतिष्ठा करके पूजन करना चाहिए ॥३४३॥ जो मनुष्य जिनमन्दिर में शुभलग्न में जिनेश्वर देवकी प्रतिष्ठा करके पूजा करते हैं वे स्वर्ग१. यहाँस आगे ३३९ तकके श्लोक एक पत्रके नहीं मिलनेसे नहीं दिये जा सके हैं । -सम्पादक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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