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________________ श्रावकाचार-संग्रह चन्द्ररश्मिसमाकारं सर्वशं परमात्मकम् । ध्येयं स्वदेहमध्यस्थं नाभौ हृदयमस्तके ॥२९४ धारणाः पञ्च विज्ञेयाः पिण्डस्थे जिनभाषिते । पार्थिवाग्नेयिकी श्वासी जलीया तत्त्वरूपिणी ॥२९५ आत्मानं परमात्मेति यदा चिन्तयते ध्र वम् । तदा तन्मयतं याति नानावणमणिर्यथा ॥२९६ ध्यानकं प्रथमं काष्ठं ध्येयकाष्ठं द्वितीयकम् । ध्येयं निर्वाणस्योत्पाद्य परमात्मानमव्ययम् ।।२९७ उत्पन्ना मन्त्रयोगेन काष्ठाद वह्निशिखा यथा। तथात्मध्यानतो दग्धे देहे चात्मा न दह्यते ॥२९८ मषागर्भगतं रिक्तमाकारं यादृशं भवेत् । तादृशं हि निजात्मानं ध्येयं रूपादिवजितम् ॥२९९ सहजं चित्स्वरूपं यत् त्रैलोक्यशिखरे स्थितम् । निश्चलं परमात्मानं ध्येयं ज्ञेयं परात्परम् ॥३०० स्वभावे स्थिरीभूते चित्ते तल्लयतां गते । आत्मनि सुखमासीनं रूपातीतं तदुच्यते ॥३०१ ।। इति ध्यानं मया ज्ञातं दृष्ट्वा सूरिपरम्पराम् । अन्यद् गुरूपदेशेन ज्ञातव्यं रूपवजितम् ॥३०२ इति भव्यमार्गोपदेशोपासकाध्ययने भट्टारकश्रीजिनचन्द्रनामाङ्किते जिनदेवविरचिते धर्मशास्त्र सामायिकध्यानपद्धतिकथनं नाम पञ्चमः परिच्छेवः ॥५॥ ऐसे चन्द्र-किरणोंके समान निर्मल आकारके धारक, स्वदेह मध्यस्थ सर्वज्ञ परमात्माका ध्यान अपनी नाभिमें, हृदयमें अथवा मस्तकमें करना चाहिए ॥२९४।। जिनदेवसे कथित पिण्डस्थ ध्यानमें पार्थिवी, आग्नेयी, श्वासी (वायवी), जलीय, और तत्त्वरूपिणी ये पांच धारणाएं जाननी चाहिए ॥२९५|| जब यह ध्याता पुरुष अपने आत्माको 'यह परमात्मा है' ऐसा निश्चय रूपसे चिन्तन करता है, तब वह तन्मयताको प्राप्त हो जाता है। जैसे कि स्फटिक मणि नाना वर्णों के संयोगसे तन्मयताको प्राप्त हो जाता है ॥२९६॥ ध्यानरूप प्रथम काष्ठ और ध्येयरूप द्वितीय काष्ठ ये दोनों परस्परके संघर्षसे परमात्मरूप अव्यय निर्वाणका ध्येय उत्पन्न करते हैं ।।२९७|| जैसे मंत्रयोगके द्वारा काष्ठसे अग्निशिखा उत्पन्न होती है, उसी प्रकार आत्मध्यानके योगसे इस देहके दग्ध हो जानेपर शुद्ध आत्मा प्रकट होता है, क्योंकि देहके दग्ध हो जानेपर भी आत्मा दग्ध नहीं होता है ॥२९८।। जैसा मूषागर्भगत रिक्त आकार होता है, वैसा ही रूपादिसे रहित निजात्माका ध्यान करना चाहिए ॥२९९| जो सहज चैतन्य स्वरूप है, त्रैलोक्यके शिखर पर स्थित है, निश्चल है, परात्पर है ऐसा शुद्ध सिद्ध परमात्मा ध्येय जानना चाहिए ॥३००। स्वभावमें स्थिर होनेपर और चित्तके तन्मयताको प्राप्त होनेपर आत्मामें सुख रूपसे विराजमान जो आत्मा है, वह रूपातीत कहा जाता है ॥३०१।। इस प्रकारसे आचार्य-परम्पराको देखकर मैंने जो ध्यानका स्वरूप जाना है, उसे कहा । गुरुजनोंके उपदेशसे अन्य भी रूपातीत ध्यानका स्वरूप जानना चाहिए ॥३०२॥ इति श्री भट्टारक जिनचन्द्र नामाङ्कित जिनदेव-विरचित भव्यमार्गोपदेश उपासकाध्ययन नामक धर्मशास्त्र में सामायिक-ध्यान-पद्धतिका कथन करनेवाला पंचम परिच्छेद समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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