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भव्यमार्गोपदेश उपासकाध्ययन
ध्याता ध्यानं तथा ध्येयं फलं निष्पत्तिकारणम् । कथितं जिनचन्द्रेण जिनदेवमहात्मने ॥२८३ ध्याता रत्नत्रयोपेतो ध्यानमेकाग्रचित्तता। ध्येयं तु परमात्मत्वं फलं ज्ञानादिलक्षणम् ॥२८४ कर्मक्लेशविनिर्मुक्ता ध्यानयोगेऽपि मानवाः । धर्म्यध्यानेन तिर्यश्वः स्वगं गच्छन्ति नान्यथा ॥२८५ सप्ताक्षराणि पञ्चव पदानि परमेष्ठिनाम् । ध्येयानि सर्वसिद्धयर्थ पूर्वसूरिप्रभाषितम् ॥२८६ षोडशं षट् च पञ्चैव चत्वारो द्वौ च ह्यक्षरी। एकाक्षरमपि ध्येयं सर्वसिद्धिकरं परम् ॥२८७ अवर्गादिहकारान्तं सरेफ बिन्दुकान्वितम् । तदेव परमं तत्त्वं ध्येयं सर्वार्थसिद्धिदम् ।।२८८ पुण्डरोकत्रयं यस्य सिन्ध्वाकारावृतं समम् । चन्द्राभैश्चामरोज्यं ध्येयं सर्वज्ञमव्ययम् ॥२८९ घातिकर्मविनिर्मुक्तं सज्ज्ञानादिगुणार्णवम् । शुभदेहस्थितात्मानं ध्येयं जिनेन्द्रनिर्मलम् ॥२९० शुद्धो यो रूपवन्नित्यं सिद्धं विश्वैककारणम् । विश्वबाह्यं च विश्वस्यं विश्वव्यापि चिदात्मकम् ॥२९१ सुरासुरेन्द्रसङ्घातैर्वन्द्यं विश्वप्रकाशकम् । ध्येयरूपं जिनेन्द्रस्य रूपस्थं ध्यानमुच्यते ॥२९२
कायप्रमाणमथ लोकमानं ऊध्वंस्तथा सिद्धगतिप्रमाणम् । निरामयं कर्मकलङ्कमुक्तं ध्येयं जिनोक्तं परमात्मरूपम् ॥२९३
ध्यानके विषयमें श्री जिनचन्द्रने महात्मा जिनदेवके लिए ध्याता, ध्यान, ध्येय और ध्यानका फल ये चार बातें ध्यानकी सिद्धिकी कारण कही हैं ॥२८३।। रत्नत्रयसे संयुक्त पुरुष ध्याता कहलाता है, चित्तकी एकाग्रताको ध्यान कहते हैं, परम शुद्ध आत्मा ध्येय है और सम्यग्ज्ञान आदिकी प्राप्ति होना ध्यानका फल है ॥२८४॥ ध्यानके संयोगसे मनुष्य कर्मोंके क्लेशसे विमुक्त होकर सिद्ध पद प्राप्त करते हैं और धर्मध्यानके योगसे तिर्यंच भी स्वर्गको जाते हैं, यह बात अन्यथा नहीं है ॥२८५।। पंच परमेष्ठि-वाचक 'अ सि आ उ सा' ये पांच अक्षर, अथवा 'अ सि आ उ सा नमः' ये सात अक्षर सर्व अर्थों की सिद्धिके लिए ध्येय रूपसे पूर्वाचार्योंने कहे हैं ॥२८६।। 'ओं' यह एक अक्षर, 'सिद्ध' ये दो अक्षर, अथवा 'अर्ह' ये दो अक्षर', अरिहंत, अथवा अरहंत' ये चार अक्षर, 'सिद्धेभ्यो नमः' ये पांच अक्षर, 'ओं नमः सिद्धेभ्यः' ये छह अक्षर, अथवा' 'अरहंत सिद्ध' ये छह अक्षर, अथवा 'अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो नमः' ये सोलह अक्षर सभी उत्कृष्ट सिद्धिके करने वाले हैं ।।२८७।। अकार जिसके आदिमें है और हकार जिसके अन्तमें है, जो रेफ और बिन्दुसे संयुक्त है ऐसा 'अहं' यही मंत्र परम तत्त्व है और सर्व अर्थकी सिद्धिका दाता ध्येयरूप है ॥२८८॥
जिसके तीन श्वेत छत्र सिरपर लग रहे हैं, जो तीन सिन्धुरूप वलयाकार कटनियोंसे आवृत हैं, चन्द्रके समान आभावाले श्वेत चामरोंसे वीज्यमान हैं। ऐसे अव्यय सर्वज्ञ जिनदेव अरहन्त परमेष्ठी ध्येय रूप हैं ॥२८९॥ जो चारों घातिया कर्मोसे रहित हैं, अनन्तज्ञानादि गुणोंके सागर हैं, जिनकी आत्मा परम शभ औदारिक देहमें स्थित है, ऐसे परम निर्मल जिनेन्द्रदेव ध्येय हैं ।।२९०॥ जो शुद्ध रूपवान् नित्य, सिद्धस्वरूप, विश्वकल्याणके एकमात्र कारण हैं, विश्व अर्थात् त्रिलोकसे बाह्य अनन्त आकाशके भी ज्ञाता हैं, विश्वमें स्थित हैं, विश्व में ज्ञानरूपसे व्याप्त हैं, चैतन्यात्मक हैं, सुर, असुरोंके समुदायसे वन्द्य हैं, विश्वके प्रकाशक हैं, ऐसे स्वरूपमें स्थित जिनेन्द्रदेवका ध्यान करना रूपस्थ ध्यान कहलाता है ॥२९१-२९२।। जिनका आत्मा शरीर-प्रमाण है, प्रदेशोंकी अपेक्षा अथवा लाकपूरण समद्धातकी अपेक्षा लोक प्रमाण हैं. ऊर्ध्वगामी स्वभाव वाले हैं, सिद्धगति प्रमाण हैं, निरामय हैं, कर्म-कलङ्कसे विमुक्त हैं, ऐसे परमात्मस्वरूपको जिनेन्द्र देवने ध्येय कहा है ॥२९३॥
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