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________________ अथ पञ्चमः परिच्छेदः प्रियाप्रिये योगवियोगभावे दुःखे सुखे मृत्युसमागमे वा। लाभे च हानौ समभावतत्त्वं सामायिकं तं जिनदेवदृष्टम् ॥२७२ सामायिकोपयुक्तेन कर्तव्या जिनवन्दना । त्रिसन्ध्यं कर्मनाशार्थ दोषमुक्त्यै च सर्वदा ॥२७३ दोषाश्च त्रिविधा ज्ञेया कायवाङ्मनसोद्भवाः । कायजा द्वादश प्रोक्ता वाचिका दशधा तथा ॥२७४ कायजास्तत्र वक्ष्यामि यथा दृष्टं जिनागमे । दिशामालोकनं पूर्व वय॑मासन्नमासनम् ॥२७५ योगपट्टासनं वर्ल द्वितीयं कुक्कुटासनम् । अन्यालोकं तृतीयं च चतुर्थ चान्यकर्मकृत ॥२७६ प्रसारणाकुश्चनमोटनानि कराङ्गमर्दो नखशोधनानि। कद्रसमालस्यविज़म्भणानि त्वेतानि वाणि च कायजानि ॥२७७ मूको बकसमाकारो वाचालो टिट्टभो यथा। गीतिछन्दानुवादो च संक्षेपी चान्यवादकः ॥२७८ वार्ता हास्यं तथा शीघ्रं दृष्टादृष्टं च वर्जयेत् । कर्तव्यं सर्वदा काले चाकाले ह्यविवेकिता ॥२७९ ख्यातिलाभनिमित्तेन गारवेण भयेन वा । इज्याघभीच्छया क्लुप्तं भक्तिभावादिजितम ॥२८० इत्येवं ज्ञातसम्प्रोक्ता दोषाश्चान्ये कुकर्मतः । कायोत्सर्गे तथा दोषा द्वात्रिंशद भवन्ति खल ॥२८१ तैर्मुक्तो चिन्तयेद् ध्यानं चतुर्भेदं जिनोदितम् । पदं रूपं च पिण्डस्थं रूपातीतं निरामयम् ।।२८२ प्रिय-अप्रिय वस्तुमें, संयोग-वियोग भावमें, सुख-दुःखमें, जन्म-मरणमें और हानि-लाभमें समभाव रखनेको जिनदेवने सामायिक कहा है ॥२७२।। सामायिकमें उपयुक्त श्रावकको तीनों सन्ध्याओंमें कर्मोके नाश करनेके लिए, तथा दोषोंसे मुक्ति पानेके लिए सदा ही जिन-वन्दना करनी चाहिए ।।२७३॥ दोष तीन प्रकारके जानना चाहिए-काय-जनित, वचन-जनित और मनोजनित । काय-जनित दोष बारह और वाचिक दोष दश प्रकारके कहे गये हैं ॥२७४।। इनमेंसे में पहिले काय-जनित दोषोंको जैसा कि मैंने जिनागममें देखे हैं, कहूंगा। सर्वप्रथम दिशाओंका अवलोकन छोड़ना चाहिए । दूसरा आसन्न आसन दोष है, अर्थात् चलायमान आसन नहीं रखना चाहिए, किन्तु योग, पट्टासन, दूसरा वजासन, तीसरा कुक्कुटासन सामायिकके समय रखना चाहिए । तीसरा दोष अन्य पुरुषकी ओर देखना है, चौथा दोष सामायिकको छोड़कर अन्य कार्य का करना हे ॥२७५-२७६।। पाँचवाँ दोष हाथ-पैरको पसारना है, छठा दोष हाथ-पैरको आकंचित करना है, सातवाँ दोष शरीरको मोड़ना है, आठवां दोष शरीर हाथ आदिका मदन करना है. नवा दोष नखोंका मैल-शोधन करना है, दसवाँ दोष शरीरको खुजलाना है, और ग्यारहवां दोष जम्हाई आदि लेना है। सामायिकके समय इन काय-जनित दोषोंका त्याग करना चाहिए ॥२७७॥ गंगेके समान मूक रहना, वकके समान आकार रखना, वाचाल प्रवृत्ति करना, टिट्रभके समान शब्द करना, गीत-छन्दका अनुसरण करना, संक्षेपसे सामायिक करना, अन्यसे किसी कार्य को कहना, वार्तालाप करना, हँसना, शीघ्रता करना, देखे दोषोंको कहना, अदृष्ट दोषोंको नहीं कहना इन सब वचन सम्बन्धी दोषोंको छोड़े। सामायिक सदा ही यथाकाल करनी चाहिए और अकालमें करना अविवेकता है ।।२७८-२७९|| ख्याति, लाभके निमित्तसे सामायिक करना, गौरवसे करना, भयसे करना, पूजा आदिकी इच्छासे करना, भक्ति-भाव आदिसे रहित होकर सामायिक करना, ये सब ज्ञात दोष कहे । इसी प्रकारसे अन्य जो खोटे कार्य करनेसे दोष होते हैं, उन सबको तथा अज्ञात दोषोंको भी छोड़ना चाहिए । इसी प्रकार कायोत्सर्गके बत्तीस दोष होते हैं। उनसे मुक्त होकर जिनेन्द्र-भाषित पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, निरामय रूपातीत इन चार प्रकारके ध्यानोंका चिन्तवन करना चाहिए ॥२८०-२८२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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