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________________ भव्यमार्गोपदेश उपासकाध्ययन भोजनस्नानगन्धादिताम्बूलवसनाविषु । भोगोपभोगसंख्या च द्वितीयं हि गुणवतम् ॥२६२ मूशलविषशस्त्राग्निदण्डपाशादियन्त्रकम् । न देयं तु परे यज्ञे संज्ञा नोऽनेकसंग्रहे ॥२६३ नासावेधं वधं बन्धं भारस्यारोपणं तथा । न कर्तव्यं पशूनां च तृतीयं हि गुणवतम् ॥२६४ द्वात्रिंशद्दोषनिर्मुक्तं पूर्वाचार्यक्रमेण च । त्रिसन्ध्यं वन्द्यते देवं सामायिकं व्रतं भवेत् ।।२६५ उभे पक्षे चतुर्दश्यां चाष्टम्यामपि हि ध्रुवम् । प्रोषधवतमारूढो रम्भारम्भविवजितम् ॥२६६ जिनालये शिवाशाय जैनं विधि समाश्रयन् । आतंरौद्रे परित्यज्य धर्माशुक्ले समाचरेत् ।।२६७ पात्रं हि त्रिविधं प्रोक्तं दानं देयं चतुर्विधम् । श्रद्धादिभक्तिसम्पन्नो निरवद्यं यथाविधि ॥२६८ निःसङ्गो हि व्रती भूत्वा स्वार्तरौद्रविवर्जितः । म्रियेत समभावेन सल्लेखनाव्रतमुच्यते ॥२६९ द्वादशानि व्रतान्यत्र विधिना परिपाल्यते । अन्तकाले तनुं त्यक्त्वा दिवं गच्छति सुवती ॥२७० भव्या नाके सुखं भुक्त्वा चक्रशाश्व हलायुधाः । भवन्ति मनुजक्षेत्रे मोक्षं गच्छन्ति नान्यथा ॥२७१ इति भव्यमार्गोपदेशे उपासकाध्ययने भट्टारकश्रीजिनचन्द्रनामाङ्किते जिनदेवविरचिते धर्मशास्त्रे व्रतकथनं नाम चतुर्थः परिच्छेदः ॥४॥ निश्चित कर लिया जाता है और उसका उल्लंघन करके गमन नहीं किया जाता है, तब दिग्वत नामका प्रथम गणवत होता है ॥२६॥ भोजन, स्नान, गन्ध, विलेपन आदि, तथा ताम्बल, वस्त्र आदि भोग और उपभोगको संख्या सीमित करना भोगोपभोगसंख्यान नामका दूसरा गुणवत है ॥२६२|| मसल, विष, शस्त्र, अग्नि, दण्ड, पाश (जाल) आदि और जीव-घातक अने प्रकारके यंत्र दूसरोंको नहीं देना चाहिए। तथा यज्ञमें अनेक प्रकारके पदार्थोके संग्रहमें इच्छा नहीं करनी चाहिए और अनुमति भी नहीं देनी चाहिए ।।२६३।। किसी जीवका नासिकाछेदन, वध, बन्धन तथा अधिक भारके आरोपण नहीं करना चाहिए। यह तीसरा अनर्थदंडत्याग नामका गुणवत है ॥२६४|| ___ बत्तीस दोषोंसे रहित पूर्वाचार्योंके द्वारा बतलाये गये अनुक्रमसे तीनों सन्ध्या कालोंमें देववन्दना करना सामायिक नामका प्रथम शिक्षावत है ॥२६५।। प्रत्येक मासके दोनों पक्षोंमें दोनों ही अष्टमी और चतुर्दशोके दिन नियमपूर्वक स्त्रीसेवन और आरम्भ-समारम्भको छोड़कर प्रोषधब्रत का पालन करना यह दूसरा शिक्षावत है ॥२६६॥ उपवासके दिन जिनालयमें जाकर मोक्षकी आशासे जैनविधिका आश्रय लेता हुआ आतं और रौद्र ध्यानका परित्याग कर धर्मध्यान और शुक्ल ध्यानका आचरण करना चाहिए ॥२६७।। जैन आगममें सुपात्र तीन प्रकारके कहे गये हैं, उनको श्रद्धा, भक्ति आदि सात प्रकारके गुणोंसे युक्त होकर निर्दोष चार प्रकारका दान विधिपूर्वक देना चाहिए ॥२६८।। जीवनके अन्तिम समय सर्व परिग्रहसे रहित होकर आत-रौद्र-ध्यानसे विमुक्त होकर समभावके साथ मरना सल्लेखनाव्रत कहा जाता है ।।२६९।। जो सुव्रती श्रावक इस प्रकार उक्त बारह व्रतोंको इस लोकमें विधिसे पालन करता है, और अन्तिम समयमें शरीरको छोड़ता है, वह स्वर्गको जाता है ॥२७०॥ ऐसे व्रती भव्य-श्रावक स्वर्गमें अनुपम सुख भोगकर वहाँसे आकर इस मनुष्य क्षेत्रमें चक्रवर्ती और बलदेव होकर मोक्षको जाते हैं, यह बात अन्यथा नहीं है ॥२७१।।। इस प्रकार भट्टारक जिनचन्द्र-नामाङ्कित जिनदेव-विरचित भव्यमार्गोपदेश उपासकाध्ययन नामक धर्मशास्त्रमें व्रत-कथन नामका चौथा परिच्छेद समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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