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________________ अथ चतुर्थः परिच्छेदः इत्येवं दर्शनाचारं ज्ञात्वा ह्याचरते ध्रुवम् । स भव्यो दर्शनीकश्च जिनदेवेन भाषितः ॥ २४९ संसारदुःखसंत्रस्तो यदा जोवो भवेद् ध्रुवम् । तदा तस्य व्रतं देयं सम्यग्दर्शनपूर्वकम् ॥२५० यावज्जीवं श्रसानां च प्राणिनां प्राणरक्षणम् । स्थावराणां प्रवृत्तित्वे चाणुमात्र व्रतं भवेत् ॥२५१ अणुव्रतं गुर्ण शिक्षाव्रतं द्वादशभेदकम् । सम्यग्दर्शनपूर्व हि कर्त्तव्यं च यथाक्रमम् ॥ २५२ अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचयं सुदुर्धरम् । परिग्रहप्रमाणत्वं पञ्चाणुव्रतमिष्यते ॥ २५३ गमने कृतमर्यादा भोगसंख्या तथा ध्रुवम् । अनर्थदण्डनिर्मुक्तमित्येवं तु गुणव्रतम् ॥२५४ सामायिकमुपवासं पात्रदानं सुलेखना । इति शिक्षाव्रतान्येवं जिनचन्द्रेण भाषितम् ॥ २५५ देवार्थं वा भेषजार्थं वा क्रोधमानभयैश्च वा । प्राणिहिंसा न कर्तव्या तदाद्याणुव्रती भवेत् ॥२५६ रागद्वेगमदैम हैर्माया लोभभयादिभिः । अनृतं न कथ्यते किञ्चिद् द्वितीयं तद्धघणुव्रतम् ॥ २५७ विस्मृतं च स्थितं नष्टं कूटमानतुलादिषु । परद्रव्यं न हर्तव्यं तदास्तेयव्रतं भवेत् ॥ २५८ परस्त्री मन्यते माता भगिनीव सुतासमा । स्वरामायां प्रवृत्तिश्च तद्धि तुर्यमणुव्रतम् ॥२५९ धनं धान्यं पशु प्रेष्यं गृहं दारान्यसंग्रहम् । प्रमाणव्रतसंयुक्तं सुसन्तोषव्रतं भवेत् ॥ २६० दिशासु विदिशासूचचः सोमसंख्या भवेद् यदा । नाक्रम्य गम्यते यत्र तदाद्यं च गुणव्रतम् ॥२६१ इस प्रकार ऊपर कहे गये दर्शनाचारको जानकर जो भव्यजीव इसे नियमपूर्वक आचरण करता है, उसे जिनदेवने दर्शनिक श्रावक कहा है || २४९ || जब जीव निश्चित रूपसे संसारके दुःखोंसे पीड़ित हो, तब उसे सम्यग्दर्शनपूर्वक व्रत देना चाहिए || २५० ॥ यावज्जीवन त्रस प्राणियोंके प्राणोंकी रक्षा करना अर्थात् संकल्पपूर्वक उनका घात नहीं करना और स्थावर जीवोंकी प्रवृत्तिमें सावधानी रखना अणुमात्र व्रत अर्थात् अणुव्रत कहलाता है ॥२५९॥ पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत इन बारह भेदरूप श्रावकके व्रत होते हैं । इनका सम्यग्दर्शनपूर्वक यथाक्रम से परिपालन करना चाहिए ॥ २५२ ॥ अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, अति दुर्धर ब्रह्मचर्याणुव्रत और परिग्रहपरिमाणव्रत ये पाँच अणुव्रत कहे जाते हैं || २५३॥ गमनागमन की जीवन भरके लिए मर्यादा करना (दिग्वत), भोग-उपभोगको संख्या सीमित करना (भोगोपभोग परिमाण) और अनर्थदण्डों का परित्याग करना ये तीन गुणव्रत हैं || २५४ || प्रतिदिन सामायिक करना, पर्वके दिन उपवास करना, पात्रोंको दान देना और जीवनके अन्त में सल्लेखना धारण करना इस प्रकार जिनचन्द्रने ये चार शिक्षाव्रत कहे हैं || २५५ ।। देवताकी प्रसन्नता के लिए, अथवा औषधिके लिए, अथवा क्रोध, मान, भयसे प्रेरित होकर प्राणियों की हिंसा नहीं करनी चाहिए, तभी मनुष्य प्रथम अहिंसाणुव्रती होता है || २५६ ॥ राग, द्वेष, मद, मोह, माया, लोभ और भय आदिसे रंचमात्र भी असत्य भाषण नहीं करना यह दूसरा सत्याणुव्रत है || २५७ || दूसरेके भूले हुए या कहीं पर रखे हुए, या विनष्ट हो गये द्रव्यका अपहरण नहीं करना, तथा कूट नाप-तौल आदि करके पर द्रव्योंको नहीं लेना यह तीसरा अचौर्याणुव्रत है ।। २५८|| वृद्धा परस्त्रीको माता मानना, युवती परस्त्रीको बहिनके समान और अपनेसे कम अवस्थावाली परस्त्रीको पुत्रीके समान समझना और केवल अपनी ही स्त्रीमें प्रवृत्ति करना यह चौथा ब्रह्मचर्याणुव्रत है ॥२५९॥ धन, धान्य, पशु, नौकर-चाकर, घर, दासी आदि पर पदार्थोंका प्रमाणसे युक्त व्रत धारण करना पाँचव सन्तोषाणुव्रत है || २६० ॥ सभी दिशाओं में और विदिशाओं में जब जीवन भरके लिए गमनागमनकी सीमाका परिमाण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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