________________
भव्यमार्गोपदेश उपासकाध्ययन
३८९ असुरकुमारोच्चत्वं दण्डानां पञ्चविंशतिः । भावना व्यन्तरा देवा दशवण्डोच्छिता मताः ॥२३९ कुलकोटिकसंख्या या दुर्बोधा च जिनागमे । रुच्यते न हि विस्तारः पण्डिते चेतरे जने ॥२४० पृथ्वीकायापःकाथानामनिलानलकायजाम । प्रत्येक सप्त लक्षाणि नित्येतरसमन्विताम् ॥२४१ दशलक्षमिता प्रोक्ता वनराजी भवेद् ध्र वम् । द्वित्रिचतुभिरक्षाणां द्वे द्वे लक्षे भवन्ति च ॥२४२ तिरश्चां चतुरो लक्षाश्चतुलक्षाश्च नारकाः । लक्षातुर्दश प्रोक्ता मनुजा भूमिभागतः ॥२४३ देवाः सर्वे चतुर्भेदाश्चतुर्लक्षा उदाहृताः । एवं हि चतुरशीतियोनिलक्षाः भवन्ति च ॥२४४
गतीन्द्रियज्ञानकषायवेदा लेश्या सु भव्यो वर सम्यकत्वम् (?)
सुसंयम दर्शनयोगकाया आहारसंज्ञा इति मार्गणानि ॥२४५ मिथ्यात्वं सासनं मिथं सम्यक्त्वं चापि ह्यवतम् । व्रतं महाव्रतं प्रोक्तं प्रमत्तमप्रमत्तकम ॥२४६ अपूर्वो ह्यनिवृत्तिश्च सूक्ष्मश्च शमिकस्तथा । क्षीणमोहो सयोगी च ह्ययोगी सिद्धनिष्कलः ॥२४७ आयुर्मानादिकं सत्रं निजशक्त्या यथागमम् । कथितं दर्शने सारे जिनदेवेन धर्मिणा ॥२४८ इति भव्यमार्गोपदेशोपासकाध्ययने भट्टारक श्रीजिनचन्द्रनामाङ्किने जिनदेव
विरचिते धर्मशास्त्रे दर्शनाचारविधेस्तृतीयः परिच्छेदः ॥३॥
गई है । अर्थात् शुक्र-महाशुक्र युगलमें साढ़े चार हाथ और शतार-सहस्रारमें चार हाथ, आनत प्राणतयें साढ़े तीन हाथ और आरण-अच्युत युगलमें तीन हाथ शरीर की ऊंचाई कही गई है। इससे ऊपर अधोग्रेवेयकत्रिकमें अढ़ाई हाथ, मध्यम ग्रैवेयकत्रिकमें दो हाथ और उपरिम अवेयकत्रिकमें तथा नवों अनुदिशोंमें डेढ़ हाथ, और पांचों अनुत्तर विमानोंमें एक हाथ देवोंके शरीरकी ऊंचाई कही गई है ।।२३८|| असुर कुमारोंके शरीरकी ऊंचाई पच्चीस धनुष, शेष भवनवासी और व्यन्तर देवोंके शरीरकी ऊंचाई दश धनुष कही गई है ।।२३९।। जीवोंके कूल-कोटियोंको जो संख्या जिनागममें कही गई है, वह दुर्बोध है, वह पंडित जन और इतर साधारण जनको नहीं रुचती है, अतः उसका विस्तार यहाँ पर नहीं किया जाता है ॥२४॥
पृथिवी काय, जल काय, अग्नि काय, वायु काय इनमें प्रत्येकको सात-सात लाख योनियां होती हैं। नित्य और इतर निगोद-सहित वनस्पति कायकी दस लाख योनियाँ कहो गई हैं। द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, और चतुरिन्द्रिय जीवोंकी प्रत्येककी दो-दो लाख योनियां होती हैं, तिर्यचोंकी चार लाख और नारकियोंकी चार लाख योनियां होती हैं। कर्मभूमि और भोगभूमिके मनुष्योंकी चौदह लाख योनियां कही गई हैं। चारों भेद वाले देवोंकी चार लाख योनियां कही गई हैं। इस प्रकार कुल चौरासी लाख योनियां होती हैं ।।२४१-२४४||
गति, इन्द्रिय, ज्ञान, कषाय. वेद, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संयम, दर्शन, योग, काय, आहार और संज्ञा ये चौदह मार्गणाएं होती हैं। इनके द्वारा जीवोंका अन्वेषण किया जाता है ।।२४५।। मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरत सम्यक्त्व, देश व्रत, प्रमत्तमहाबत, अप्रमत्तमहाव्रत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरणसंयत, सूक्ष्मसाम्पराय संयत, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगिकेवलि और और अयोगिकेवलि ये चौदह गुणस्थान हैं। शरीर-रहित सिद्ध परमेष्ठो गुणस्थानातीत हैं ॥२४६-२४७।। इस प्रकार आयु, शरीर-मान आदि सूत्रकी अपनी शक्तिसे आगॅमके अनुसार जिनदेव धर्मी पुरुष ने इस दर्शन-सारवाले परिच्छेदमें वर्णन किया ॥२४८।। इति श्री भट्टारक जिनचन्द्र-नामाङ्कित जिनदेव विरचित भव्यमार्गोपदेशोपासकाध्ययन
नामक धर्मशास्त्रमें दर्शनाचारविधिका प्रतिपादक तीसरा परिच्छेद समाप्त हुआ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org