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________________ श्रावकाचार-संग्रह जिनागारे शुभे लग्ने प्रतिष्ठाप्य जिनेश्वरम् । पूजयन्ति नरा ये ते भवन्ति स्वर्गवासिनः ॥३४४ प्रतिष्ठयाऽभिषेकेण पूजादानफलेन च । ऐहिके च परत्रे च देवैः पूज्यो भवेन्नरः ॥३४', अङ्गप्रक्षालनं कार्य स्नानं वा गालितोदकात् । धौतं वस्त्रां ततो धार्य शुद्ध देवार्चनोचितम् ॥३४६ दन्तकाष्ठं तदा कार्य गण्डः शोधयेन्मुखम् । तदा मौनं प्रतिग्राह्यं यावद्द वविसर्जनम् ॥३४७ क्षेत्रप्रवेशनाद्यैश्च मन्त्रौः क्षेत्रप्रवेशनम् । ततः ईर्यापथं शोध्यं पश्चात्पूजां समारभेत् ॥३४८ इन्द्रोऽहमिति सङ्कल्पं कृत्वाऽऽभरणभूषितम् । तत्र देवं ततः स्थाप्यं स्थापनामन्त्रयुक्तिभिः ॥३४९ तत आहूय दिग्नाथान् मन्त्रैः सूरिगुणोदितैः । यक्ष-यक्षी ततः स्थाप्ये क्षेत्रपालसमन्विते ॥३५० सकलीकरणं कायं मन्त्रबीजाक्षरैस्तथा। एवं शुद्धिकृतात्मासौ ततः पूजां समारभेत् ॥३५१ आम्रक्षुनालिकेराद्यै रसैः क्षीरघृतैस्तथा । दध्ना गन्धोदकैः स्नानं पूजा चाष्टविधा तथा ॥३५२ नीरश्चन्दनशालीयैः पुष्पैः नानाविधैः शुभैः । नैवेद्यैर्दोपधूपैश्च फलैः पूजा विधीयते ॥३५३ सुसिद्धचक्र परमेष्ठिचक्रं रत्नत्रय वा जिनपूजनं वा । श्रुतं सुपूज्यं वरपुण्थबुद्धचा स्वर्गापवर्गार्थफलप्रदं तत् ॥३५४ पूजयेत्सर्वसिद्धचर्थ जिनं सिद्धं सुखात्मकम् । जिनोक्तं तच्छ तं पूज्यं सर्वकर्मक्षयाथिभिः ॥३५५ पूर्वमाहूय देवांश्च पूजयित्वा विसर्जयेत् । सर्व ते जिनभक्तानां शान्तिं कुर्वन्ति सर्वदा ॥३५६ वासी होते हैं ।।३४४॥ प्रतिष्ठा करानेसे, अभिषेकसे, पूजा करनेसे और दानके फलसे मनुष्य इस लोकमें और परलोकमें देवोंके द्वारा पूज्य होता है ॥३४५।। पूजा करनेसे पहिले गालित जलसे अंग-प्रक्षालन या स्नान करना चाहिए । पुनः देव-पूजनके योग्य धुला हुआ शुद्ध वस्त्र धारण करना चाहिए ॥३४६।। पुनः काष्ठकी दातुन करनी चाहिए और जलके कुल्लों-द्वारा मुखकी शुद्धि करनी चाहिए। तत्पश्चात् देव-विसर्जन करने तक मौन ग्रहण करना चाहिए ॥३४७।। जिनमन्दिर में प्रवेश करने आदिके मंत्रोंका उच्चारण करते हुए धर्म क्षेत्रमें प्रवेश करना चाहिए। पश्चात् ईर्यापथकी शुद्धि करके पूजाको प्रारम्भ करे ।।३४८।। 'मैं इन्द्र हूँ' ऐसा संकल्प करके और आभूषणोंसे भूषित होकर स्थापनाके मंत्रोंका उच्चारण करते हुए देवकी स्थापना करनी चाहिए ॥३४९।। पुनः आचार्योंके द्वारा कहे गये मंत्रोंसे दिग्पालोंको आह्वान करके क्षेत्रपालोंसे युक्त यक्ष-यक्षियोंकी स्थापना करे ॥३५०। पुनः मंत्र-बीजाक्षरोंसे सकलीकरण करना चाहिए । इस प्रकार सर्व शुद्धि करके शुद्ध आत्मा श्रावक जिन-पूजा प्रारम्भ करे ॥३५१॥ आम, ईख, नारियल, आदिके रसोंसे, दूधसे, घीसे, दहीसे, तथा सुगन्धित जलसे भगवान्का अभिषेक करे। तथा अष्ट द्रव्योंसे पूजन करे ॥३५२।। जलसे, चन्दनसे, शालितन्दुलोंसे, नाना प्रकारके उत्तम पुष्पोंसे, नाना प्रकारके शुभ नैवेद्योंसे दीपों, धूपों और नाना प्रकारके फलोंसे जिनेन्द्र देवकी पूजा की जाती है ॥३५३।। पूजन करनेवाले पुरुषको उत्तम पुण्योपाजंन करनेकी बुद्धिसे स्वर्ग और मोक्ष रूपको देनेवाले सिद्धचक्र, परमेष्ठिचक्र, रत्नत्रय, अथवा जिन पूजन और श्रत पूजनको करना चाहिए ॥३५४।। सर्व कर्मोंके क्षय करनेके इच्छुकजनोंको सर्व अर्थकी सिद्धिके लिए जिनदेवकी सुखस्वरूप सिद्ध भगवान्की और जिनोक्त श्रुतज्ञानकी पूजा करनी चाहिए ।।३५५।। पूजन प्रारम्भ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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