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भन्यमार्गोपदेश उपासकाध्ययन व्रतानि समितिः पञ्च गुप्तित्रयसमन्वितम् । चारित्रं बहुभेदं हि संवरस्य निबन्धनम् ॥१९२ कोषादीनां निरोधेन कर्मणां यन्निरोधनम् । द्रव्यसंवरणं प्रोक्तं जिनचन्द्रेण सूरिणा ॥१९३ निर्जरा द्विविधा प्रोक्ता सविपाकाविपाकतः । कालेन सविपाका हि तपसा व द्वितीयका ॥१९४ ध्यानं हि कुर्वते नित्यं निर्जरायं च योगिनः । भावनिर्जरणं प्रोक्तं द्रव्यनिर्जरणं परम् ॥१९५ सर्वकर्मक्षयो येन परिणामेन जायते । भावमोक्ष इति यो भिन्नत्वं द्रव्यमोक्षणम् ॥१९६
सम्यक्त्वभक्तिजिनपूजनाचं तपोदयासंयमदानयुक्तम् । इत्येवमाद्यः सकलः शुभात्रवः पुण्यः पदार्थो जिनदेव-दृष्टः ॥१९७ शल्यत्रयं गारवदण्डलेश्या संज्ञा कपाया विषयाः प्रमादाः ।
मिथ्यात्वहिसाव्यसनादिमोहः पापः पदार्थो जिनभाषितश्च ॥१९८ एतानि सप्ततत्त्वानि कथितानि जिनागमे । पदार्था हि नव प्रोक्ता जिनचन्द्रेण सूरिणा ॥१९९ इति भव्यमार्गोपदेशोपासकाध्ययने भट्टारकश्रोजिनचन्द्रनामाङ्किते जिनदेवविरचिते
धर्मशास्त्रे सप्ततत्त्वनिरूपणो नाम द्वितीयः परिच्छेदः ॥२॥
है। अब द्रव्यसंवर कहते हैं ॥१९१।। पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति-सहित अनेक भेदवाला चारित्र संवरका कारण कहा गया है ॥१९२।। इन गुप्ति-समिति आदिके द्वारा क्रोधादि कषायोंके निरोधसे कर्मोका जो निरोध होता है उसे जिनचन्द्रसूरिने द्रव्य संवर कहा है ॥१९३॥ सविपाक और अविपाकके भेदसे निर्जरा दो प्रकारकी कही गयी है। उदयकाल आनेसें जो कर्मोकी निर्जरा होती है, वह सविपाक निर्जरा है और तपश्चरण करनेसे जो कर्मोंकी निर्जरा होती है वह अविपाक निर्जरा है ॥१९४॥ योगी पुरुष कोंकी निर्जराके लिए नित्य ध्यान करते हैं, वह भावनिर्जरा कही गई है और उस ध्यानसे जो कर्म-परमाणु झड़ते हैं, वह दूसरी द्रव्यनिर्जरा कही गई है ॥१९५॥ आत्माके जिस परिणामसे सर्व कर्मोंका क्षय होता है, वह भावमोक्ष जानना चाहिए। और कर्म-परमाणुओंका जो आत्मासे छूटना है, वह द्रव्यमोक्ष कहा गया है ।।१९६।।
सम्यक्त्व, भक्ति, तप, दया, संयम, दानयुक्त जिनपूजनादि तथा इसी प्रकारके अन्य समस्त शुभास्रवको जिनदेव-दृष्ट पुण्यपदार्थ जानना चाहिए ।।१९७॥ माया, मिथ्यात्व, निदान ये तीन शल्य, रसगारव, सातगारव और ऋद्धिगारव ये तीन गारव, मन, वचन काय ये तोन दण्ड, छह लेश्या, आहारादि चार संज्ञायें, क्रोधादि चारों कषाय,इन्द्रियोंके पाँच विषय, पन्द्रह प्रमाद, मिथ्यात्व, हिसारूप प्रवृत्ति, व्यसनादि रूपप्रवृत्ति, और मोह इन सबको जिन-भाषित पापपदार्थ कहा गया है ॥१९८॥ श्री जिनागममें ये सात तत्त्व कहे गये हैं। इनके साथ पुण्य और पापके मिला देने पर जिनचन्द्रसूरिने उन्हींको नौ पदार्थ कहा है ॥१९९।।
इस प्रकार भट्टारक श्री जिनचन्द्रसूरिके नामसे अंकित और जिनदेव विरचित इस भव्यमार्गोपदेश उपासकाध्ययन नामके धर्मशास्त्रमें यह दूसरा परिच्छेद समाप्त हुआ।
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