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________________ १८४ भावकाचार-संग्रह प्रमाणनयविज्ञेयं स्याच्छब्दादिसुभङ्गः । निर्देशादिषु निक्षेपेवंस्तुबोधाय भाषितम् ॥१७९ जीवतत्त्वं मया प्रोक्तं निजशक्त्या यथागमम् । अजीवो द्विविधो ज्ञेयो रूपारूपादिभेदतः ॥१८० स्थूलस्कन्धादिभेदेन चतुर्धा रूपिणः स्मृताः । स्कन्धो देशः प्रदेशश्च परमाणुः पुद्गलो यथा ॥१८१ समस्तपुद्गल: स्कन्वस्तस्या? देश उच्यते । देशस्यार्घः प्रदेशश्च निरंशोऽणुः प्रकीत्तितः ॥१८२ शब्दगन्धरसस्पर्शच्छायासंस्थानमादयः । पुद्गलद्रव्यपर्याया जिनदेवेन भाषिताः ॥१८३ धर्माधमौं नभः कालाऽजीवोऽरूपो प्रभाषितः । स्वकीयगुणपर्यायः संयुक्ताः सर्व एव ते ॥१८४ आत्रवो जायते येन परिणामेन कर्मणाम् । भावात्रवः स विज्ञेयो द्रव्यात्रवस्तथोच्यते ॥१८५ अवतैः क्रोधमिथ्यात्वैः प्रमादैर्योगकैस्तथा । पञ्च चत्वारि पञ्चैव पञ्चदश त्रयस्तथा ॥१८६ ज्ञानावरणादीनां यज्जीवानां जायते ध्र वम् । द्रव्यात्रवः स विज्ञेयो बहुभेदो जिनोदितः ॥१८७ कर्म बध्नाति भावैर्य वबन्धः स उच्यते । पूर्वसरिक्रमं दृष्टवा द्रव्यबन्धस्तथोच्यते ॥१८८ जीवस्य कर्मप्रदेशातामन्योन्यं च प्रवेशनम् । द्रव्यबन्ध इति ख्यातश्चतुर्भेदो जिनागमे ॥१८९ बन्धः प्रकृतिर्देशश्च स्थितिबन्धोऽनुभागतः । योगेन प्रथमौ ज्ञेयो कषायैश्चेतरौ तथा ॥१९० चैतन्यपरिणामेन शास्त्र वस्य निरोधनम् । स भावसंवरः प्रोक्तो द्रव्यसंवर उच्यते ॥१९१ . अनन्त गुणोंसे युक्त हैं, वे त्रैलोक्यके शिखर पर अवस्थित हैं। उनका वह सिद्धत्व उत्पाद, व्यय और धोव्यरूप जिनदेवने कहा है ॥१७८॥ ‘स्यात्' शब्दसे युक्त सात भंगोंके द्वारा तत्त्वोंका स्वरूप प्रमाण और नयसे जाना चाहिए । और नाम आदि निक्षेपोंके द्वारा निर्देश आदि अनुयोग द्वारोंमें वस्तु बोधके लिए उनका कथन किया गया है ॥१७९।। इस प्रकारसे अपनी शक्तिसे आगमके अनुसार जीव तत्त्वका स्वरूप कहा । अब अजीव तत्वको कहता हूँ। रूपी और अरूपो आदिके भेदसे अजीव दो प्रकारका जानना चाहिए ॥१८०॥ _ रूपी पुद्गल स्थूल स्कन्द आदिके भेदसे चार प्रकारके कहे गये हैं यथा-स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु रूप पुद्गल ॥१८१॥ समस्त पुद्गल-समुदायको स्कन्ध कहते हैं, उसके अर्धभागको देश कहते हैं, देशके अर्ध-भागको प्रदेश कहते हैं और निरंश भागको अणु या परमाणु कहा गया है ।।१८२॥ शब्द, गन्ध, रस, स्पर्श, छाया, संस्थान आदिको जिनदेवने पुद्गल द्रव्यकी पर्याय कहा है ॥१८३।। धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये अरूपी अजीवद्रव्य कहे गये हैं। ये सभी छहों द्रव्य अपने-अपने गुण और पर्यायोंसे संयुक्त होते हैं ॥१८४॥ । ___ आत्माके जिस परिणामसे कर्मोंका आगमन होता है, वह भावास्रव जानना चाहिये तथा कर्म परमाणुओंका आत्माके भीतर आना द्रव्यास्रव कहा जाता है ॥१८५॥ हिंसादि पांच अव्रतों (पापों) से, क्रोधादि चार कषायोंसे, पांच मिथ्यात्वोंसे, पन्द्रह प्रमादोंसे, तथा तीन योगोंसे ज्ञानावरणादि कर्मोका जीवोंसे जो आस्रव होता है, वह अनेक भेदवाला जिनभाषित द्रव्यास्रव जानना चाहिए ॥१८६.१८७।। आत्माके जिन भावोंके द्वारा कर्मबन्ध होता है वह भावबन्ध कहा गया है। पूर्वाचार्योंके क्रमको देखकर अब द्रव्यबन्धका स्वरूप कहा जाता है ॥१८८॥ जीवके और कर्मके प्रदेशोंका परस्पर जो प्रवेश होता है वह द्रव्यबन्ध कहलाता है। उसके जिन आगममें चार भेद कहे गये हैं ॥१८९।। यथा-प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध, स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध । इनमें प्रथमके दो बन्ध योगसे होते हैं तथा अन्य जो दो बन्ध हैं वे कषायोंसे होते हैं ॥१९॥ आत्माके जिस चैतन्यभावसे कर्मास्रवका निरोध होता है, वह भावसंवर कहा गया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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