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________________ भव्य र्मोपदेश उपासकाध्ययन द्वित्रिचतुरिन्द्रियाः प्रोक्ताः पर्याप्ता इतरास्तथा । पचेन्द्रिया द्विधा ज्ञेया ते समनस्कामनस्कभेदतः ॥ १६७ आहार शरीराक्षा श्वासोच्छवासं च भाषणम् । मनसा सहिताः सर्वाः षट् च पर्याप्तयः स्मृताः ॥ १६८ एकेन्द्रियस्य चत्वारि पञ्च च विकलत्रिके । पञ्चाक्षे च षट् सन्तीति पूर्वसूरिभिर्भाषितम् ॥१६९ अनन्तानन्त जीवाश्च पिण्डीभूता भवन्ति चेत् । साधारण इति नाम्ना कथितोऽनन्तकायिकः ॥ १७० अनन्तानन्त संसारे त्रसत्वं च न विद्यते । नित्यं निगोदकाख्यास्तेऽन्यथेतर निगोदकाः ॥ १७१ पृथक-पृथक शरीरं हि पृथग्भावेन वर्तते । ते प्रत्येकशरोरा हि पूर्वसूरिभिर्भाषिताः ॥ १७२ योनिभूतं शरीरं हि येषां ते सप्रतिष्ठिताः । न भवन्त्याश्रया येषां प्राणिनस्तेऽप्रतिष्ठिताः ॥ १७३ एकोनविंशतिर्भेदा अष्टत्रिंशत्तथा ध्रुवम् । सप्तपञ्चाशच्च तेषां हि भेदाः प्रोक्ता जिनैस्तथा ॥ १७४ आयुर्देहः कुयोनिच मागंणागुणवर्तिनाम् । एतत्कर्मकृतं ज्ञेयं निश्चये शुद्धचेतना ॥ १७५ afe कुन्थुप्रमाणोऽयं जीवः कर्मवशानुगः । समुद्धातविनिर्मुक्तः सोऽसंख्यात प्रदेशकः ॥ १७६ पद्मरागो यथा क्षीरे यथा दीपो घटे स्थितः । तथात्मा सर्वजीवानां देहमात्रो जिनोदितः ॥ १७७ निष्कर्मा गुणयुक्तो हि त्रेलोक्यशिखरे स्थितः । उत्पादव्ययध्रौव्यत्वं सिद्धत्वं जिनभाषितम् ॥ १७८ प्रत्येक के दो-दो भेद होते हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । इस प्रकार विकलात्रकके छह भेद हो जाते हैं। पंचेन्द्रियके भी दो भेद हैं-समनस्क (संज्ञी) और अमनस्क (असंज्ञी) || ये दोनों ही पर्याप्त और अपर्याप्तके भेद से चार प्रकारके हो जाते हैं। इस प्रकार जीवोंके सर्वभेद चौदह होते हैं ।। १६६१६७ || आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति, भाषा पर्याप्ति और मन पर्याप्ति - ये छह पर्याप्तियाँ जाननी चाहिए || १६८ || इनमेंसे एकेन्द्रिय जीवके आदिकी चार, विकलत्रिकके तथा असंज्ञी पंचेन्द्रियके आदिकी पाँच और संज्ञी पंचेन्द्रियके छह पर्याप्तियाँ पूर्वाचार्यों ने कही हैं ॥१६९ || जहाँ पर अनन्तानन्त जीव एक पिण्ड होकर के रहते हैं, वे साधारण या अनन्त कायिक कहे गये हैं || १७० || जिस अनन्तानन्त जीवोंसे व्याप्त संसार में कभी सपना प्राप्त नहीं हुआ है, वे नित्य निगोद नामक जीव कहलाते हैं । इनसे विपरीत जिन्होंने त्रस पर्याय पाकरके पुनः निगोद पर्याय पाई है, वे इतर निगोद वाले जीव कहलाते हैं ॥ १७१ ॥ | जिन जीवोंका पृथक्-पृथक् रूपसे पृथक् शरीर होता है उन्हें पूर्वाचार्योंने प्रत्येक शरीरी जोव कहा है ॥ १७२॥ जिनका शरीर योनिभूत है अर्थात् जिसमें अन्य जीव उत्पन्न होते रहते हैं, वे सप्रतिष्ठित शरीर वाले कहलाते हैं और जिन शरीरोंके आश्रय अन्य प्राणी नहीं रहते हैं, वे अप्रतिष्ठित शरीर वाले कहलाते हैं ॥१७३॥ इन जीवोंके उन्नीस भेद, अड़तीस भेद और सत्तावन भेद भी जिनदेवने कहे हैं । (जिन्हें गो० जीवकाण्डसे जानना चाहिए ) || १७४ | | चौदह मार्गणाओं और गुणस्थानोंमें रहने वाले सभी भेद कर्म-कृत जानना चाहिए। इन जीवों के भवोंकी आयु, देह और कुयोनियाँ भी कर्मकृत ही हैं । निश्चयसे तो जीवका स्वभाव शुद्ध चैतन्य स्वरूप ही है || १७५ || यह जीव कर्मके वशसे समुद्धातरहित अवस्था में कभी हाथी प्रमाण शरीर वाला हो जाता है और कभी कुन्थु प्रमाण शरीर वाला हो जाता है । पर सभी दशाओं में असंख्यात प्रदेश वाला ही रहता है || १७६ || जैसे दूधमें पद्मरागमणि स्थित हो और घट में दीपक स्थित हो, उसी प्रकार देहमें आत्मा विद्यमान है । जिन भगवान् ने सभी संसारा जीवोंका निवास देहमात्र कहा है || १७७ ॥ किन्तु जो कर्म-रहित हो गये हैं और Jain Education International For Private & Personal Use Only ३८३ www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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