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________________ ३८२ श्रावकाचार-संग्रह वर्शनं चक्षुरानेयमचक्षुर्दर्शनं तथा । अवधिदर्शनं चैव केवलं च चतुर्विधम् ॥१५५ मतिश्रुतावधिज्ञानं मनःपर्ययकेवलम् । सुज्ञानं पञ्चधा प्रोक्तमज्ञानत्रयमष्टकम् ॥१५६ अनादिनिधनो ह्यात्मा द्रव्याश्रितनयैस्तथा । नित्यो ह्यनित्यतां याति पर्यायनयः सर्वदा ॥१५७ गन्धस्पर्शरसैणलिङ्गशब्दादिजितः । निश्चयेन ह्यमूर्तोऽयं मूर्तः कर्ममलान्वितः ॥१५८ ऊर्ध्वगो हि स्वभावेन जीवो वह्निशिखा यथा । एरण्डस्य च बीजं वा जले मग्ना तु तुम्बिका ॥१५९ स्वयं कर्ता स्वयं भोक्ता जीवः कम शुभाशुभम् । द्रव्यक्षेत्रादिभावेन कोशिकारः कृमियथा ॥१६० कर्मणः पुद्गलस्यास्य कर्ता भोक्ता भवेत् स्वतः । व्यवहारनयनात्मा शुद्धेनानन्तचतुष्कम् ॥१६१ अनादिनिधना जीवाः सिद्धाः संसारिणः स्मृताः । सिद्धाः सिद्धगति प्राप्ता अष्टकर्मविजिताः ॥१६२ संसारिणो द्विधा ज्ञेयाः स्थावरत्रसभेदतः । स्थावराः पञ्चधा प्रोक्तास्त्रमा बहुविधाः स्मृताः ॥१६३ पृथ्वी तोयानिलं तेजो वनराजिस्तु पञ्चमी । पञ्चधा स्थावराः प्रोक्ता जिनचन्द्रेण सूरिणा ॥१६४ पञ्चेन्द्रियाश्चतुर्भेदाः षष्ठधा विकलत्रिकाः । स्थावराश्चतुर्धा प्रोक्ता एवं भेदाश्चतुर्दश ॥१६५ एकेन्द्रियादिपर्याप्राः अपर्याप्ता विसज्ञिकाः। बादरा सूक्ष्मकास्तेषामितरे बावराः स्मृताः १६६ वाला उपयोग दो प्रकारका जानना चाहिए । इन में दर्शनोपयोग चार प्रकारका और ज्ञानोपयोग आठ प्रकारका जिनपरमेष्ठीने कहा है ॥१५४॥ दर्शनोपयोगके चार भेद इस प्रकार हैं-१ चक्षुदर्शन, २ अचक्षुदर्शन, ३ अवधिदर्शन और ४ केवलदर्शन ॥१५५।। ज्ञानोपयोगके आठ भेद इस प्रकार हैं-१ मतिज्ञान, २ श्रुतज्ञान, ३ अवधिज्ञान, ४ मन पर्ययज्ञान और ५ केवलज्ञान । तथा तीन अज्ञान अर्थात् १ कुमति ज्ञान, २ कुश्रुतज्ञान और ३ कुअवधिज्ञान ॥१५६|| द्रव्याथिक नयकी अपेक्षा यह आत्मा अनादिनिधन है। तथा पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा यह सदा बदलता रहता है, अतः अनित्यताको भी प्राप्त होता है ॥१५७॥ यह आत्मा निश्चयनयकी अपेक्षा गन्ध, स्पर्श, रस, वर्ण, लिंग, शब्द आदिसे रहित है, अतः अमूर्त है । और वर्तमान संसारी दशामें कर्मरूप मलसे संयुक्त हैं अतः मूर्त हैं ॥१५८॥ यह जीव स्वभावसे ऊर्ध्वगामी है। जैसे कि अग्निकी शिखा, अथवा एरण्डका बीज अथवा जलमें डूबी हुई तुम्बी ऊध्वंगामो है ॥१५९|| यह जीव द्रव्य-क्षेत्रादिके प्रभावसे शुभ और अशुभ कर्मका स्वयं ही कर्ता है और स्वयं ही उनके फलका भोक्ता है। जैसे कि कोशेका कीड़ा स्वयं ही अपने उगले न्तुओस बंधता रहता है ॥१६०।। व्यवहार नयसे यह आत्मा स्वयं ही इस पुद्गल कर्मका कर्ता और भोक्ता है। किन्तु शुद्ध निश्चयनयसे वह शुद्ध ज्ञान-दर्शन आदि अनन्तचतुष्टयका कर्ता और भोक्ता है ।।१६।। ये अनादि निधन जीव सिद्ध और संसारीके भेदसे दो प्रकारके माने गये हैं । जो आठ कर्मोसे रहित होकर सिद्धगतिको प्राप्त हो गये हैं वे सिद्ध जीव हैं ।।१६२।। संसारी जीव त्रस और स्थावरके भेदसे दो प्रकारके जानना चाहिए। इनमें स्थावर जीव पाँच प्रकारके कहे गये हैं और त्रस अनेक प्रकारके होते हैं ।।१६३।। जिनचन्द्रसूरिने पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति ये पाँच प्रकारके स्थावर कहे हैं ॥१६४॥ त्रस जीवोंके मूलमें दो भेद हैं-विकलेन्द्रिय और सकलेन्द्रिय या पंचेन्द्रिय । इनमें पंचेन्द्रिय जीव चार प्रकारके कहे गये हैं और विकलेन्द्रिय या विकलत्रिक जीव छह प्रकारके होते हैं। तथा स्थावर जीव चार प्रकारके हैं। इस प्रकार सब जीवसमास चौदह होते है ॥१६५।। एकेन्द्रियके मूल भेद दो हैं -बादर और सूक्ष्म । उन दोनोंके पर्याप्त और अपर्याप्तके भेदसे स्थावरके चार भेद हो जाते हैं। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय ये तीन विकलत्रिक कहलाते हैं । इन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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