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________________ अथ द्वितीयः परिच्छेदः जोवाजीवालवा बन्धस्तथा संवरनिर्जरे । मोक्षः सप्तैव तत्वानि वर्धमानेन भाषितम् ॥१४४ पुण्यपापसमायुक्ताः पदार्था जिनभाषिताः । जिनचन्द्रप्रसादेन मया ज्ञाताः सुनिश्चिताः ॥१४५ धर्माधर्मो नमः कालो जीवाजीवविशेषकम् । षड़ द्रव्यं च समाख्यातं कालहीनं तु कायिकम् ॥१४६ गतिस्थित्यवकाशश्च परिणामी च प्रोच्यते । असंख्यातप्रदेशत्वं धर्माधर्मे सचेतने ॥१४७ । नभस्यनन्तप्रदेशत्वं मूर्ते च त्रिविधं स्मृतम् । कालस्यैकप्रदेशत्वमकायत्वं च लभ्यते ॥१४८ उपयोगयुतो जीवो नित्योऽमूर्तो हि चोर्ध्वगः । कर्ता भोक्ता च संसारो तनुमानं च निष्कलः ॥१४९ जीवितो जीवमानो हि जीविष्यति च नान्यथर । द्रव्यभावात्मकैः प्राणी जीवनाज्जीव उच्यते ॥१५० शरीरेन्द्रियमायुष्यं श्वासोच्छ्वासो वचो मनः। द्रव्यप्राणा इति ख्याता भावप्राणाः सुखादिकाः॥१५१ प्रत्यक्षेणानुमानेन जीवो दृश्यो मतः स्फुटम् । संज्ञेन्द्रियानुमानेन प्रत्यक्ष भूतले तथा ॥१५२ भूता मन्त्रभयात् भीता वदन्ति च भवान्तरम् । विप्रोऽहं क्षत्रियोऽहं वा वेदाचारं वदे ध्रुवम् ॥१५३ उपयोगो द्विधा ज्ञेयो दर्शनज्ञानसंज्ञकः । चतुर्धा चाष्टधा प्रोक्तो जिनेन परमेष्ठिना ॥१५४ श्री वर्धमान भगवान्ने जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व कहे हैं ॥१४४॥ इनमें पुण्य और पाप इन दोको मिला देनेपर जिन-भाषित नौ पदार्थ हो जाते हैं। मैंने इन नौ पदार्थोंको श्री जिनचन्द्रके प्रसादसे सुनिश्चित जाना है ।।१४५॥ धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश, काल जीव और अजीव ये छह द्रव्य कहे गये हैं। इनमेंसे कालको छोड़कर शेष पाँच द्रव्य अस्तिकाय कहलाते हैं ।।१४६।। इनमेंसे जीव-पुद्गलोंकी गतिमें सहायक धर्मद्रव्य, स्थिति में सहायक अधर्मद्रव्य, और अवकाश देने में सहायक आकाशद्रव्य कहा गया है, ये सर्वद्रव्य प्रति समय परिणामी अर्थात् परिणमनशील हैं। धर्मद्रव्यमें, अधर्मद्रव्यमें और अचेतन अर्थात् एक जीवद्रव्यमें असंख्यातप्रदेश होते हैं ॥१४७॥ आकाशद्रव्यमें अनन्तप्रदेश होते हैं और मूर्त पुद्गल द्रव्यमें संख्यात, असंख्यात और अनन्त ये तीन प्रकारके प्रदेश माने गये हैं ॥१४८॥ उक्त द्रव्योंमेंसे जीव ज्ञान-दर्शनरूप उपयोगमयी है, नित्य है, अमूर्त हे, स्वभावसे ऊर्ध्वगामी है, कभॊका कर्ता है, उनके फलका भोक्ता है, संसारमें परिभ्रमण करनेवाला है, शरीर-प्रमाण है, और शरीर-रहित सिद्धस्वरूप भी है ॥१४९॥ जो भूतकालमें द्रव्य और भावस्वरूप प्राणोंसे जीवित रहा है, वर्तमानमें जी रहा है और आगे भविष्यकालमें भी जीवेगा, इस प्रकार जीवनस्वभाव होनेसे यह प्राणी जीव कहा जाता है। जीवका यह स्वभाव कभी अन्यथा नहीं हो सकता है ॥१५०।। शरीर, पाँच इन्द्रियां, आयु, श्वासोच्छवास, वचन और मन ये दश द्रव्य प्राण कहे गये हैं और सुख, ज्ञान, दर्शन आदि भावप्राण कहे गये हैं ॥१५१।। अमूर्त और आंखोंसे नहीं दिखाई देनेवाला यह जोव प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणसे स्पष्टतः दृश्य माना गया है। भूतलपर घट आदि पदार्थ प्रत्यक्ष देखे जाते हैं, उसी प्रकार आहार आदि संज्ञाओंसे और इन्द्रियोंकी प्रवृत्तिरूप अनुमानसे भी यह प्रत्यक्ष हो ज्ञात होता है ॥१५२॥ मंत्रवादीके मंत्रसे भयभीत भूत-प्रेतादि देव अपने भवान्तरोंको कहते हुए प्रत्यक्ष ही लोकमें देखे जाते हैं। वे कहते हैं कि मैं पूर्व भवमें ब्राह्मण था, में क्षत्रिय था, अथवा में वेदका आचरण करनेवाला था ||१५|| ज्ञान और दर्शन संज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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