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________________ १७४ श्रावकाचार-संबह मदैः शङ्कान्वितेस्तथानायतनैः सह । यन्निर्मलं हि सम्यक्त्वमेतैश्च मलिनीकृतम् ॥६२ विज्ञानं जातिमैश्वर्य कुलं रूपबलान्वितम् । तपो विद्या मदांश्चाष्टी त्यक्त्वा भव्यो भवेद्ध्वम् ॥६३ जिनेन्द्रवचने शङ्का आकाङ्क्षा च न विद्यते। विदिगिछा शरीरस्य मूढं मूढात्मनस्तथा ॥६४ दोषोक्तिरपगृहः स्यादस्थितिव्रतकम्पनम् । अवात्सल्यं चावज्ञा पूजानाशोऽप्रभावना ॥६५ अधर्माद धर्ममाख्याति त्वदेवान्मुक्ति मन्यते । अव्रताद् व्रतमादाय मिथ्यामूढत्रयान्वितम् ॥६६ कुतीर्थगमनं स्नानं धर्मेच्छा पुत्रमिच्छता। भगुपातोऽग्निपातश्च लोकमूढं निगद्यते ॥ ६७ वरदानं पुत्रदानेच्छा जीविकासाधनाशया। कुदेवकीर्तनं पूजा देवे मूढा हि ते स्मृताः ॥६८ मुण्डधारी जटाधारो सग्रन्यो लुञ्चितस्तथा। पाखण्डिनमनं स्नेहं जेयं पाखण्डिमोहनम् ॥६९ कुदेवागमलिङ्गानि तेषामाराधकास्त्रयः । एतान्यनायतनानि-भाषितानि जिनेश्वरैः ॥७० धर्मप्रभावना हर्षो संसारस्य ह्यसारता । आत्मनिन्दा प्रशंसा च गुरूणां व्रतधारिणाम् ॥७१ उपशमो जिनभक्तिश्च पूजा च वन्दना तथा। इत्यष्टगुणसंयुक्तं ज्ञेयं सम्यक्त्वलक्षणम् ॥७२ भरतो तस्य पुत्रश्च रामः सोता सुदर्शनः । विजयाऽहंद्दासश्च बलिनामा सुरेवती ॥७३ चेलना वासुदेवश्च नागी च प्रभावती । लक्ष्मणो विष्णुनामा च वसुपालश्व जन्मना ॥७४ सर्वे सर्वगुणोपेता मुख्यत्वेनैकमुच्यते । शङ्काद्यैश्च परित्यक्ता निःशङ्कादिगुणान्विता:॥७५ तत्त्वोंका जो श्रद्धान है, वहो सम्यक्त्व कहा गया है ॥६॥ जो निर्मल सम्यक्त्व है वह शंकादि दोषोंसे, मूढ़ताओंसे और अनायतनोंसे मलिन कर दिया जाता है ॥६२॥ विज्ञान, जाति, ऐश्वर्य, कुल, रूप, बल, तप, और विद्या, इन आठके मदको छोड़कर भव्यजीव निश्चयसे निर्मल सम्यक्त्वका धारक होता है ॥६३॥ जिसकी जिनेन्द्र देवके वचनोंमें कोई शंका नहीं है, धर्मके सेवनसे किसी भी लौकिक फलकी आकांक्षा नहीं है, शरीरको ग्लानि नहीं है, आत्मामें कोई मूढ़ता नहीं है, दूसरोंके दोषोंका कहना अपगृहन दोष है, व्रतसे चलायमान रहना अस्थिति दोष है, दूसरेकी अवज्ञा करना अवात्सल्य दाष है और पूजनादिका विनाश करना अप्रभावना दोष है। इन दोषोंसे रहित होनेपर ही सम्यक्त्वका सर्वाङ्ग परिपालन होता है ।।६४-६५॥ जो अधर्मसे धर्म कहता है, अदेवसे मुक्ति मानता है और अव्रतसे व्रत लेकर तीन प्रकारको मिथ्यामूढताओंसे युक्त है, वह मिथ्यादृष्टि है ॥६६॥ कुतीर्थोकी यात्रा करना, धर्मकी इच्छासे, पुत्रको इच्छासे, नदीसमुद्रादिमें स्नान करना, भृगुपात करना, ये सब लोकमूढ़ता कही जाती है ।।६७॥ वरदान और पुत्रकी इच्छासे, या जीविकाके साधनकी अभिलाषासे कुदेवोंका गुणकीर्तन करना, पूजन करना यह सब देवमूढ़ता मानी गयी है ।।६८॥ मुण्डित रहनेवाले, या जटा धारण करनेवाले, परिग्रह रखनेवाले, केश लोंच करनेवाले पाखण्डियोंको नमस्कार करना और उनसे स्नेह रखना यह पाखण्डिमूढ़ता जाननी चाहिए ॥६९॥ कुदेव, कुमागम और कुलिंगी ये तीन, तथा इन तीनोंके बाराधक इनको जिनेश्वरोंने छह अनायतन कहा है ।।७०॥ धर्मको प्रभावना करना, धर्म-कार्यमें हर्ष करना, संसारकी असारताका विचार करना, अपने दोषोंको निन्दा करना, परके अर्थात् गुरुजनोंके और व्रतधारियोंके गुणोंको प्रशंसा करना, कषायोंका उपशम करना, जिनदेवकी भक्ति करना, पूजा और वन्दना करना, इन आठ गुणोंसे संयुक्त होना सम्यक्त्वका लक्षण जानना चाहिये॥७१-७२।। भरत, उसका पुत्र, राम, सीता, सुदर्शन, विजया, अहंदास, बलि, रेवती, चेलना, वासुदेव, नागश्री, प्रभावती, लक्ष्मण, विष्णुकुमार, और और वसुपाल ये यद्यपि जन्मसे सर्वगुणोंसे अर्थात् आठों अंगोंसे संयुक्त थे, परन्तु एक गुणकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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