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________________ भव्यधर्मोपदेश उपासकाध्ययन सम्यक्त्वेन समायुक्तो सप्तषटके न जायते । स्त्रीलिङ्ग त्रिविधे चैव भवनत्रिकयोनिषु ॥७६ उत्कृष्टेन द्वितीये वा भये सप्ताष्टमे तथा । भुक्त्वा नाके नरे सौख्यं मोक्षं गच्छति नान्यथा ॥७७ सम्यक्त्वं च दृढं यस्य दर्शनं तस्य तिष्ठति । दर्शनेन समायुक्तं व्रतं च सफलं भवेत् ॥७८ सम्यक्त्वे रसे स्वच्छे गम्भीरे दोषवजिते। दर्शनादीनि पद्मानि भवन्तीति न संशयः ॥७९ माननीयं सदा भव्यैः इच्छितव्यं तथा पुनः । आज्ञासम्यक्त्वमिदं प्रोक्तं जिनदेवेन भाषितम् ।।८० उदुम्बराणि पश्चैव मद्यं मांसं मधुस्तथा । क्रय-विक्रय-सन्धान-दानं पानं च वर्जयेत् ॥८१ पुष्पं हि त्रससंयुक्तं सपुष्पं तु फलं तथा । निन्दितं सर्वशास्त्रेषु जैने मूलगुणाः स्मृताः ॥८२ गालितं शुद्धतोयं च जीवनरक्षानिमित्तकम् । अष्टौ मूलगुणास्तस्य दर्शनिकस्तदा भवेत् ।।८३ कश्चिन्न गालयेत्तोयं जीवहिंसासमन्वितम् । स भवेच्च शुनाकारी कैवतं तत्तथा पुनः ।।८४ शनाकारी च कैवर्ती निमित्तेन तु हिंसते । अनिमित्तेन हिंसा च जीवानामनिगालिते ॥८५ निशि निशाचरा दुष्ठा मानवा जन्तुमिश्रितम् । मद्यमांसाशिनोच्छिष्टं भोक्तारो भुञ्जते ध्रुवम् ॥८६ अथवा सूक्ष्मजन्तूनां रक्षा तेन न कारिता। पतिता नैव दृश्यन्ते भोक्ता भुञ्जति तत्समम् ।।८७ घटिकाद्वयसंस्थाने मन्दीभूते दिवाकरे । स्वान्तक्षयं तदा कुर्याद् भोजनस्य च का कथा ॥८८ मुख्यतासे ये संसारमें प्रसिद्ध कहे जाते हैं। उक्त सभी महापुरुष शंकादि दोषोंसे रहित और नि:शंक आदि गुणोंसे युक्त थे ।।७३-७५।। ___ सम्यक्त्वसे संयुक्त जीव सात नरकोंसे नोचेके छह नरकोंमें नहीं उत्पन्न होता है, देवी, मानुषी और तिरश्ची इन तीनों स्त्रीलिंगों में उत्पन्न नहीं होता है और भवनत्रिक देवयोनियों में भी उत्पन्न नहीं होता है ।।७ ।। सम्यक्त्वी जीव उत्कृष्ट रूपसे दूसरे भवमें अथवा जघन्य रूपसे सातआठ भवमें स्वर्ग और मनुष्यगति में सुख भोगकर मोक्षको जाता है, यह अन्यथा नहीं है ॥७७॥ जिसका सम्यक्त्व दृढ़ है, उसके ही सम्यक्त्व ठहरता है और सम्यक्त्वसे युक्त ही व्रत सफल होता है ॥७८।। दोष-रहित, स्वच्छ, गम्भीर सम्यक्त्वरूपी जलमें ही दर्शन, ज्ञान, चारित्रादि कमल उत्पन्न होते हैं, इसमें कोई संशय नहीं है ||७९)| जिनेन्द्रदेवने तत्त्वोंका जैसा स्वरूप कहा है, भव्य पुरुषोंको उनका ही मनन करना चाहिए और उनके ही जाननेकी इच्छा करनी चाहिए यही आज्ञासम्यक्त्व कहा गया है |८०। इस प्रथम प्रतिमाधारी श्रावकको पाँचों ही उदुम्बर फल और मद्य, मांस, मधु, इनका क्रय-विक्रय, अचार-सन्धानकका दान और मादक वस्तुओंका पीना छोड़ना चाहिये ।।८१॥ त्रसजीवोंसे संयुक्त पुष्प और पुष्पित फलका भक्षण भो छोड़ना चाहिए । सभी शास्त्रोंमें उपर्युक्त वस्तुओंका खान-पान निन्दित माना गया है और उनके त्यागको मूलगुण कहा गया है ।।८२।। जो पुरुष जीव-रक्षाके निमित्त वस्त्र-गालित शुद्ध जलको पीता है, उसके ही आठ मूल गुण होते हैं और उक्त मूल गुणोंके पालन करने पर दर्शनिक श्रावक होता है ।।८३।। यदि कोई मनुष्य जीवहिंसाको सम्भावनासे युक्त जलको वस्त्रसे नहीं आनता है, तो वह हिसक है, जैसे कि मछली मारनेवाला कैवर्त (धीवर) ॥८४।। कैवर्त तो आजीविकाके निमित्तसे हिंसा करता है, किन्तु अगालित पानीको पीनेवाला बिना निमित्तके ही जीवोंकी हिंसा करता है ।।८।। रात्रि में भोजन करनेवाले मनुष्य जीवोंसे मिश्रित मद्य-मांसभोजियोंके उच्छिष्ट अन्नको निश्चित रूपसे खाते हैं ।।८६।। अथवा रात्रिभोजी पुरुषके द्वारा सूक्ष्म प्राणियोंकी रक्षा नहीं होती है, क्योंकि भोजनमें गिरे हए सूक्ष्म जन्तु रात्रिमें नहीं दिखाई देते हैं और भोजन करनेवाला व्यक्ति उन जीवोंके साथ ही उस अन्नको खा लेता है ॥८७॥ जब दा घड़ी दिन शेष रहता है और सूर्यका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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