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________________ भव्यधर्मोपदेश उपासकाध्ययन अशोकवृक्ष-ध्वनि-पुष्पवृष्टिशुभान्वितं दुन्दुभिभाषनादेः । छत्रत्रयं चामरवोज्यमान दृष्टं जिनेन्द्रं शतकेन्द्रवन्धम् ॥५१ देव त्वदीयचरणद्वयदर्शनेन कर्मक्षयं भवति बोधिसमाधिसौख्यम् । निष्ठामियत्ति विलयं खलु पापमूलं सर्वार्थ सिद्धिविपुलं परतः सुखं च॥५२ नानाविधैः स्तोत्रसुगद्यपद्यैः वन्द्यो जिनेन्द्रो मुनिभिश्च वन्द्यः । वृषं हि नत्वा वरमिन्द्रभूति सागार'-नागारसुधर्ममार्गम् ॥५३ तत्रैव सागारसुधर्ममार्गमेकादशैर्भेदमुदाहरन्ति । तत्रैव ह्याचं वरदर्शनीकं व्रतान्वितं तद्वितयं वदन्ति ॥५४ सामायिकं च तृतीयं ह्यदाहृतं सप्रोषधं चैव चतुर्थमण्डितम् । सचित्तपरिहारकपञ्चमाख्यं षष्ठं तु दिवसे खलु ब्रह्मचारी ॥५५ सप्ताष्टनवमं चैव दशमैकादशे तथा । सर्वसङ्गविनिमुक्तं कौपीनव्रतधारणम् ॥५६ तत्र तावत् प्रवक्ष्यामि दर्शनीकं समासतः । व्यसनोदुम्बरत्यागः सम्यक्त्वेन विराजितः ॥५७ धर्मो दयान्वितः शुद्धो रागद्वेषविजितः । मोक्षमार्गो हि निर्ग्रन्थस्तपो विषयजितम् ॥५८ आदिमध्यावसानेषु आगमः पापर्वाजतः । सर्वज्ञेन प्रणीतस्तु तं प्रमाणं नरेश्वर ॥५९ सर्वज्ञो दोषनिर्मुक्तो दोषाः क्षुत्तृड्भयादयः । रागद्वेषादयश्चान्ये तैर्मुक्तो मोक्षवान् भवेत् ॥६० शङ्कादिदोषरहितं निःशङ्कादिगुणान्वितम् । तत्त्वानां श्रद्दधानत्वं यत्तत्सम्यक्त्वमिदं विदुः ॥६१ चौंसठ चमरोंसे वोज्यमान, और शत-इन्द्रोंसे पूज्य ऐसे वीरजिनेन्द्र के दर्शन करके श्रेणिकने कहाहे देव. आपके चरण-यगलके दर्शनसे कर्मोका क्षय होता है, बोधि, समाधि और सूख चरमसीमाको प्राप्त होते हैं। पापका मूल मिथ्यात्व विनष्ट होता है और सर्व अर्थकी सिद्धि विपूलताको प्राप्त होती है ॥५१-५२॥ इस प्रकार अनेक गद्य-पद्यमय स्तोत्रोंसे मनियोंके द्वारा वन्दनीय वीरजिनेन्द्रको वन्दना करके, धर्म-(चक्र) की वन्दना करके सागार और अनगारधर्ममार्गका उपदेश करनेवाले श्री इन्द्रभूति गौतमको नमस्कार करके राजा श्रेणिक मनुष्योंके कोठेमें जाकर बैठ गया ॥३॥ उस समय धर्मका उपदेश देते हुए कहा--जिनेन्द्रदेवने सागारधर्मका मार्ग ग्यारह भेदवाला कहा है। उनमें उत्तम सम्यग्दर्शनको धारण करना प्रथम भेद है, बारह व्रतोंको धारण करना दूसरा भेद है ॥५४॥ सामायिक प्रतिमा तीसरा भेद है, प्रोषधोपवास करना चौथा भेद है, सचित्त का परिहार करना पांचवाँ भेद है, दिनमें ब्रह्मचर्य पालना छठा भेद है ॥५५॥ सदा ब्रह्मचर्य पालना सातवां भेद है, आरम्भ त्याग करना आठवाँ भेद है, सर्वसंगका त्याग करना ना भेद है, लौकिक कार्यमें अनुमतिका त्याग करना दसवाँ भेद है और कौपीन व्रतको धारण करना ग्यारहवाँ भेद है ॥५६।। इनमेंसे सबसे पहिले दार्शनिक प्रतिमाका स्वरूप संक्षेपसे कहता हूँ। सभी व्यसनोंका और पंच उदुम्बर फलोंका त्याग करना और सम्यक्त्वको धारण करना दर्शनप्रतिमा है ।।५७।। दयासे संयुक्त धर्म ही शुद्ध धर्म है, राग-द्वेषसे रहित निर्ग्रन्थपना ही मोक्षमार्ग है और इन्द्रियोंके विषयोंसे रहित होना ही सच्चा तप है ।।५८।। हे राजन्, आदि, मध्य और अन्तमें पापसे रहित और सर्वज्ञसे प्रणीत ही सच्चा आगम है, उसे ही प्रमाण मानना चाहिए ॥५९॥ क्षधा, तृषा, भय आदि और राग, द्वेष, मोह आदिक अठारह दोषोंसे रहित होता है वही सर्वज्ञ देव है, इन सर्व दोषोंसे रहित पुरुष ही मोक्ष का अधिकारी होता है ॥६॥ शंका आदि आठ दोषोंसे रहित, निःशंकित आदि आठ गुणों से सहित जीवादि सात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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