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________________ श्रावकाचार-संग्रह देवदेवाधिदेवस्य माहात्म्येन हि मोदितैः । पुष्पैः फलदलैव वनराजी विराजिता ॥३७ क्षीरजलस्रवन्ता हि नन्दिनीनन्दिता जनाः । सरित्सरोवरा हवाद्यास्तोयैश्च परिपूरिताः ॥३८ श्रुत्वा देवागमं राज्ञां जयशब्दसमुत्थिताः । पदानि सप्त गत्वा हि जिननाथो नमस्कृतः ॥३९ कृतमानन्दभेरीणां शब्दं यात्रोत्सवेन च । भव्यानामानन्दजननं रिपूणां भयकारणम् ॥४० राजद्भी रथसङ्घातै त्यैश्च परिवारितः । वारणस्कन्धमारूढो निर्गतोऽयं महीश्वरः ॥४१ जलगन्धाक्षतैः पुष्पैर्दोपै, पफलान्वितैः । जिनयात्रोत्सवैः सर्वैजनैर्नागरिकैः सह ॥४२ व्रजन्ती वाहिनी तत्र यत्र वीरजिनेश्वरः । क्वापि क्वापि जिनेन्द्रस्य कथयन्ति पुरा कथाः ॥४३ गर्भावतरणं क्वापि क्वापि मेरुप्रकम्पनम् । वापि निःक्रमणं चैव वापि केवलदर्शनाम् ॥४४ अदि समुत्थितं दृष्टं यक्षराजविनिमितम् । प्राकारखातिकावल्लोवनराजिविराजितम् ॥४५ मानस्तम्भमहाचन्द्रोपरस्तोरणान्वित । सडोतवाद्यनत्यैश्च नाट्यस्यानैः सशोभितः ॥४६ चैत्यवापीवरैर्वक्षः पुष्पैस्तैश्च विराजितम् । स्थानैदशभिर्युक्तं पीठत्रितयशोभितम् ॥४७ गणधाकल्पवासीनां युवतिप्रमुखाङ्गनाः । ज्योतिष्का व्यन्तरों नारी भावन्नारी तु षेष्ठमे ।।४८ ज्योतिष्का व्यन्तरा देवा भावना कल्पवासिनः । मनुजास्तिर्यगा प्रोक्ताः कोष्ठद्वादशभिः क्रमात् ।।४९ प्रविश्य राजा प्रविलोक्य देवं जयादिशब्दैः स्तुतिमुच्चचार । ननाम राजेश्वरवृन्दवन्द्यं सिंहासनस्योपरि संस्थितं च ॥ ५० वनपालने सर्वऋतुके फल-पुष्प भेंट करके राजाको नमस्कार किया ॥३४-३६।। और निवेदन किया-हे देव, देवाधिदेव जिनेन्द्रदेवके माहात्म्यसे प्रमोदको प्राप्त पत्रों, पुष्पों और फलोंसे वनराजि शोभायमान हो रही है, आनन्दको प्राप्त गायें दूधको जलके समान बहा रही हैं, सर्वजन प्रसन्न हो रहे हैं, तथा नदियां, सरोवर और ह्रद जलसे भर-पूर हो गये हैं ॥३७-३८॥ तीर्थंकरदेवका आगमन सुनकर राजा श्रेणिकने जय-जयकार शब्द किया और सात पग आगे जाकर जिननाथको नमस्कार किया ॥३९॥ राजाने यात्रोत्सवकी सूचना देनेवाली आनन्दभेरी बजवाई, जिसका शब्द भव्यजीवोंको आनन्द-जनक और शत्रओंको भय-कारक था ॥४०॥ शोभायमान रथोंके समहोंसे और सेवकजनोंसे घिरा हुआ महावीर श्रेणिक हाथोके कन्धे पर बैठकर प्रभुको वन्दनाके लिए निकला ॥४१॥ जल, गन्ध, अक्षत, पुष्प, दीप, धूप और फलोंसे युक्त सभी नागरिकजनोंके साथ जिनयात्राके उत्सव में जाती हुई सेना वहाँ पहुँची जहाँपर कि वीर जिनेश्वर विराजमान थे। वहां कहीं पर लोग जिनेन्द्रदेवकी पूर्वभवकी कथाओंको कह रहे थे, कहों पर गर्भावतरणकी, कहीं पर मेरुके कपानेकी, कहीं पर निष्क्रमण-कल्याणकी और कहीं पर केवलज्ञानके पानेकी लोग कथा कह रहे थे ।।४२-४४|| वहाँ पर यक्षराज कुबेरके द्वारा निर्मित उन्नत पर्वत दिखाई दिया, जो कि प्राकार, खातिका, वल्ली और वनराजिसे सुशोभित हो रहा था ॥४५।। महान् चन्द्रोंसे युक्त मानस्तम्भोंसे, तोरणोंसे युक्त गोपुरोंसे, संगीत, वाद्य, नृत्य, और सुशोभित नाटयस्थानोंसे, तथा चैत्य, वापी, श्रेष्ठ वृक्षोंसे, नानाप्रकारके पुष्पोंसे, बारह सभाओंसे और तीन पीठसे सुशोभित समवशरणको देखा ॥४६-४७।। उन बारह सभा-प्रकोष्ठोंमें क्रमसे गणधर आदि मुनिजन, आर्यिका प्रमुख स्त्रियाँ, कल्पवासिनी देवियाँ, ज्योतिष्क देवियां, व्यन्तर देवियां, भवनवासिनी देवियाँ, ज्योतिष्क देव, व्यन्तरदेव, भवनवासी देव, कल्पवासी देव, मनुष्य और तिर्यंच बैठे हुए थे ॥४८-४९।। उस समवशरणमें राजा श्रेणिकने प्रवेश करके और श्री जिनदेवको देखकर जय-जय आदि शब्दोंसे स्तुतिका उच्चारण किया और सिंहासनके ऊपर विराजमान राजेश्वर-समूहसे वन्दनीय प्रभुको नमस्कार किया ॥५०॥ अशोक वृक्ष, दिव्यध्वनि, सुगन्धित पुष्पवृष्टि, दुन्दुभिनाद, तीन छत्र, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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