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________________ भव्यधर्मोपदेश उपासकाध्ययने दुर्जनस्य च सर्पस्य समता तु विशेषतः । छिद्राभिलषिता नित्यं द्विजिह्वं पृष्ठिभक्षणम् ॥२३ गुणधर्मविनिर्मुक्ताः परममविदारकाः । ऋजुत्वेन प्रविशन्ति नाराचा इव दुर्जनाः ॥२४ एतेषां भयभीतानां सङ्केतेन मया मुदा । सुशक्यं काव्यकर्तृत्व लक्षणेन समन्वितम् ॥२५ तस्मिन् कालेऽपि गुरुणा जिनदेवो विबोधितः । तथा मार्गोपदेशोऽयं कर्त्तव्यः पुण्यहेतुभिः ॥ २६ सुजनानां प्रसादाय दुर्जनानां हि निर्मिता । विषेणाप्यमृतं यद्वत् तमांसीवांशुधारिणा ॥२७ दुर्जनाः सुजनाचैव सुजनाः सुजनास्तथा । दोषान् गृह्णन्ति दौर्जन्याद् गुणान् काव्येषु संस्थितान् ॥२८ दुर्जन-सुजनानां तु स्वभावस्तस्य लक्षणम् । गुणसहस्रमध्यस्थान् दोषान् गृह्णन्ति दुर्जनाः ॥२९ सुकर्तव्यं भयं तेषां दुर्जनाङ्गारसदृशाम् । न तेषां वालनं कुर्यात् स्वयं भूतिर्भविष्यति ॥ ३० गुरूणां वचनं श्रुत्वा जिनदेवो सुमोदितः । जिनचन्द्रप्रसादेन धर्मोत्साहः कृतः पुनः ॥३१ जम्बूद्वीपस्य भरते देशं तु मागधं विदुः । राजगृहं पुरं तत्र श्रेणिको हि नरेश्वरः ॥ ३२ राज्याङ्गः सुसमृद्धोऽपि चामात्यैः कुशलस्तथा । विशेषक्षितिपालानां स्त्रयं च सविता भवेत् ॥ ३३ माण्डलिकैः सुसामन्तैः कुमारान्तःपुरैः सह । आस्थानमण्डले रम्ये सुरेन्द्र इव लीलया ॥३४ विविधैः सेवितं पात्र विबुधैविबुधेश्वरः । चामरैर्वीज्यमानोऽपि कामिनीभिरलङ्कृतः ॥३५ प्रातिहार्य वरैर्भृत्यैः प्रेषितेन वनेशिना । सर्वतुफलपुष्पाणि दत्वा राज्ञे नमस्कृतः ॥३६ ग्रहण करें ||२२|| दुर्जन पुरुषकी ओर सर्पकी विशेष रूपसे समानता है । दोनों ही सदा छिद्रोंके (साँप बिलके और दुर्जन दोषोंके) अभिलाषी होते हैं, दो जिह्वावाले हैं और पीठ पीछे भक्षण करते हैं ||२३|| दुर्जन पुरुष बाणोंके समान गुण-धर्मसे विनिर्मुक्त हो परममके विदारक और सरलता से शरीरमें प्रविष्ट होते हैं ||२४|| इन दुर्जनोंके भयसे डरे हुए लोगोंके संकेतसे मैंने हर्षपूर्वक लक्षणशास्त्रसे संयुक्त काव्य-रचना करना सरल समझा ॥ २५ ॥ उस समय गुरुके द्वारा में जिनदेव प्रबोधको प्राप्त कराया गया । तथा उन्होंने बताया कि पुण्यके कारणोंसे यह धर्ममार्गका उपदेश करना चाहिए ||२६|| सज्जनों और दुर्जनोंकी प्रसन्नताके लिए ही विघाताने जैसे विषके साथ अमृतको, चन्द्रके साथ अन्धकारको रचा है ||२७|| संसारमें सुजन तो सुजन ही रहेंगे और दुर्जन दुर्जन ही रहेंगे । काव्यमें विद्यमान गुण-दोषोंसे दुर्जन अपने दुर्जन स्वभावके कारण दोषोंको ग्रहण करते हैं और सज्जन गुणों को ही ग्रहण करते हैं ||२८|| उनके ऐसा करने में उनकी दुर्जनता और सज्ज - तारूप स्वभाव ही लक्षण है कि हजारों गुणोंके मध्य में स्थित भी दोषोको दुर्जन ग्रहण करते हैं ||२९|| इसलिए अंगारके समान उन दुर्जनोंका भय तो करना चाहिए, किन्तु उनका ज्वालन नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे अंगार जलते -जलते स्वयं ही भस्म (भूति या राख) हो जायेंगे ||३०|| गुरुओंके ये वचन सुनकर जिनदेव प्रमुदित हुआ । और जिनचन्द्रके प्रसादसे उसने धर्ममें उत्साह किया ||३१|| ३७१ इस जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रमें मगध नामका देश है, उसमें राजगृह नामका नगर है और वहाँका नरेश्वर श्रेणिक राजा था ॥ ३२॥ वह राज्यके सभी अंगोंसे समृद्ध था, मंत्रियोंके द्वारा कुशलताको प्राप्त था, तथा विशिष्ट राजाओंके लिए वह स्वयं सूर्यके सदृश प्रकाश देनेवाला प्रतापी था ॥३३॥ एक समय जब वह् माण्डलिक राजाओं, सामन्तजनों, राजकुमारों और अन्त:पुरके साथ रमणीय आस्थान मण्डपमें इन्द्रके समान लोलापूर्वक विराजमान था, उस समय वह अनेक प्रकारके पात्रोंसे एवं विद्वानोंसे सेवित होता हुए देवोंका स्वामी - जैसा ज्ञात हो रहा था, चामरोंसे वीज्यमान था और सुन्दर स्त्रियोंसे अलंकृत था, तब उत्तम प्रतीहारियोंसे भेजे गये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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