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________________ ३७० श्रावकाचार-संग्रह सम्यग् रत्नत्रयं यस्य प्रसादेन मया ध्रुवम् । ज्ञातं तं भुवने चन्द्रं तं गुरुं प्रणमाम्यहम् ॥१० चतुःषष्टिभिता देव्यो यक्षाश्च गोमुखादयः । भव्यानां शुभकर्माणो दुष्टानां न शुभाः परम् ॥११ भरतक्षेत्रमध्यस्थं देशं तु दक्षिणापथम् । विषयं विधपल्लाख्यमामईकपुरं ततः ॥१२ वनैः आराम-उद्यानैः शोभितं जिनमन्दिरैः । हंससारसनिर्घोषैस्तडागैः सागरोपमैः ॥१३ उत्तुङ्गबहुभिश्चैव प्रासादैर्धवलैहैः । शोभितं हट्टमार्गेषु वल्लालनृपर क्षितम् ॥१४ तत्रैवामईके रम्ये जिनदेवो वगिग्वरः । वर्धमानवरे गोत्रे नागदेवाङ्गसम्भवः ॥१५ स प्रियं चिन्तयेत् प्राज्ञः संसारेऽप्यस्थिरं छिदम् । जीवितं धनता पुण्यं धर्मख्यातिः स्थिरा पुनः ॥१६ चतुरशीतिलक्षेषु मानुषत्वं सुदुर्लभम् । दुर्लभं तु कुले जन्म दुर्लभं व्रतपालनम् ॥१७ सञ्ज्ञाश्चेन्द्रिययोगाश्च सामान्याः सर्वजन्तुषु । धर्मख्यातिविहीनं तु गतं जन्म निरर्थकम् ॥१८ दानं व्रतसमूहं च धर्महेतुश्च कारणम् । कोत्तिश्च पौरुषं त्यागः कवित्वं च विशेषतः ॥१९ अल्पद्रव्य: कुतस्त्यागः पौरुषैः वणिजां कुतः । कवित्वं मन्दबुद्धिश्च कथं कोतिर्भविष्यांत ।।२० ___ स्वर्गापवर्गस्य सुखस्य हेतोभंव्यात्मबोधाय निमित्तमेनम् । गृह्णन्तु भव्याः सगुणा गुणज्ञा निन्दन्तु दुष्टाः खलु दुर्जना हि ॥२१ विद्वान्सः कुशलाः सन्तो मुनिर्वा भव्य एव वा । शोधयित्वा ऋजुत्वेन ते गृह्णन्तु सुभाषितम् ॥२२ ॥९॥ जिनके प्रसादसे मैंने रत्नत्रय धर्मको सम्यक् प्रकारसे जाना है ऐसे संसार में चन्द्र के समान उन अपने गुरुको प्रणाम करता हूँ ॥१०॥ चक्रेश्वरी आदि चौंसठ देवियाँ हैं और गोमुख आदि जो यक्ष हैं, ये भव्यजीवोंका कल्याण करनेवाले हैं पर दुष्टजनोंके लिए शुभ नहीं हैं ।।१।। इस भरतक्षेत्रके मध्य में स्थित दक्षिणापथ देश है, उसमें पल्लवनामक जनपद है, उसमें आमईक नामका नगर है ॥१२॥ वह वन, आराम, उद्यान, जिनमन्दिरोंसे, हंस सारस पक्षियों के शब्दोंसे युक्त, समुद्रके समान जलसे भरे हुए तालाबोंसे, अनेक उत्तुग प्रासादोंसे, और प्रचुर-धवल गृहोंसे शोभित है, बाजार, हाट-मार्गोंसे युक्त है और वल्लाल राजासे रक्षित है ।।१३-१४॥ उसी सुन्दर आमर्दक नगरमें श्रेष्ठ वर्धमान गोत्र में नागदेवसे उत्पन्न हआ जिनदेवनामका वैश्योंमें उत्तम सेठ रहता है ।।१५।। उस बुद्धिमान् जिनदेवने विचारा कि इस संसारमें यह सब कुदुम्ब-परिवार, जीवन और धन-वैभव अस्थिर है। किन्तु पुण्य, धर्म और कीर्ति स्थिर है ॥१६॥ चौरासी लाख योनियों में मनुष्यपना अति दुर्लभ है, उसमें भी उत्तम कुलमें जन्म होना दुर्लभ है, उत्तम कुलमें जन्म होनेपर भी व्रतका पालन करना दुर्लभ है ॥१७॥ आहार, भय, मैथुन और परिग्रह ये चारों संज्ञाएं, इन्द्रियाँ और मन, वचन, कायका योग तो सभी प्राणियोंमें सामान्य हैं । किन्तु धर्म और कीत्तिके विना जन्म निरर्थक ही जाता है ॥१८॥ दान देना, और व्रत समुदायका पालन करना, ये धर्मोपार्जनके कारण हैं , पुरुषार्थ, त्याग (दान) और विशेषतया कवित्व कीति के कारण हैं ।।१९।। वैश्योंके अल्प द्रव्यसे दान कैसे संभव है ? अल्प पुरुषार्थसे धर्म-साधन कैसे होगा? और मैं मन्द बुद्धि हूँ अतः कवित्व-रचना कैसे संभव है ? और इन सबके विना कोत्ति कैसे प्राप्त होगी ॥२०॥ स्वर्ग और मोक्षके सुखकी प्राप्तिके लिए, भव्यजीवोंके तथा अपनी आत्माके प्रबोधके लिए इस निमित्तभृत कवित्व रचनाको करना चाहिए। जो गुणशाली गुणज्ञ भव्यजीव हैं, वे तो इसमेंसे गुणको ही ग्रहण करें। और जो दुष्ट दुर्जन हैं, वे निन्दा करें ।।२१।। जो विद्वान् कुशल, सन्त पुरुष हैं, अथवा जो मुनि या भव्यजन हैं, वे सरलभावसे इस मेरी रचनाको शुद्ध करके सुभाषितका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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