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________________ श्री जिनदेव - विरचित भव्यधर्मोपदेश उपासकाध्ययन त्वा वीरं त्रिभुवनगुरुं देवराजाविन्द्यं कर्मारातीञ्जयति सकलान् भूतसङ्घ दयालुः । ज्ञानैः कृत्वा निखिलजगतो तत्त्वमादीषु वेत्ता धर्माधर्मं कथयति इह भारते तीर्थराजः ॥१ नत्वा वीरं जिनं देवं कर्मारिक्षयकारकम् । कामक्रोधादयो येन जितारातिमहाबलः ॥२ कल्याणातिशयोपेतं प्रातिहार्यसमन्वितम् । सुरेन्द्रवृन्दवन्द्याङ्घ्रि ं जिनं नत्वा जगद्-गुरुम् ॥३ नोकर्म-कर्मनिर्मुक्तान् सिद्धान् सिद्धगुणान्वितान् । लोक। ग्रशिखरावासान् नत्वाऽनन्तसुखान्वितान् ॥४ द्वादशाङ्गं श्रुतं येषां संयमं द्विविधं तथा। षट्त्रिंशद्गुणसंयुक्तं पञ्चाचाररतं नमः ॥५ तपसा संयमेनैव सश्रुतेन समन्वितान् । धर्मोपदेशकान् नित्यमुपाध्यायान् नमस्तथा ॥६ संसारसागरजलोत्तरणे प्रणेता रत्नत्रयेषु निरता जिनधर्मधीराः । रागादिदोषरहिता मदभञ्जना ये ते साधवः सुवयसः शिरसा हि वन्द्याः ॥७ प्रत्येकं परमेष्ठिनं नत्वा वोरं जिनेश्वरम् । वक्ष्येऽहं श्रावकाचारं पूर्वसूरिक्रमं यथा ॥८ त्वा जिनोद्भवां वार्णो सर्वसत्त्वहितङ्करोम् । जीवाजीवादितत्त्वानां धर्ममार्गोपदेशिकाम् ॥९ त्रिभुवनके गुरु हैं, देवोंके स्वामी इन्द्रोंसे जिनके चरण वन्दनीय हैं; सकल कर्म-शत्रुओंको जीता है, फिर भी जीव-समुदायके ऊपर दयालु हैं, ज्ञानके द्वारा सकल जगत्के तत्त्वों आदिके वेत्ता हैं, जो इस भारतवर्ष में धर्म और अधर्मको कहते हैं, और वर्तमान तीर्थके राजा हैं, उन महावीर स्वामीको नमस्कार करके ( उपासकाध्ययनको कहूँगा ) ॥ १|| कर्मरूपी शत्रुओंको क्षय करनेवाले वीर जिनदेवको नमस्कार करता हूँ, जिन्होंने काम-क्रोधादिको जीता है और जो महाबली शत्रुओंके विजेता हैं ||२|| जो कल्याणकारी चौंतीस अतिशयोंसे संयुक्त हैं, आठ महाप्रातिहार्योंसे युक्त हैं, देवेन्द्र-वृन्दसे जिनके चरण वन्दनीय हैं और जो जगत्के गुरु हैं, ऐसे जिनेन्द्र अरिहन्त देवको नमस्कार करता हूँ ||३|| जो ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, राग-द्वेषादि भावकर्म और शरीरादि कर्म से विनिर्मुक्त हैं, सम्यक्त्व आदि सिद्धोंके गुणोंसे युक्त हैं, लोकके अग्रभागके शिखर पर विराजमान हैं और अनन्त सुख से युक्त हैं, ऐसे सिद्धोंको नमस्कार करता हूँ ||४|| जिन्हें द्वादशाङ्ग श्रुतका ज्ञान है, जो इन्द्रिय संयम और प्राणिसंयम रूप दो प्रकारके संयमके धारक हैं, छत्तीस गुणोंसे युक्त हैं और दर्शनाचार आदि पंच आचारोंके पालनमें निरत हैं ऐसे आचार्योंको नमस्कार करता हूं ||५|| जो बारह प्रकारके तपसं, बारह प्रकारके संयमसे और बारह प्रकारके श्रुतसे संयुक्त हैं और नित्य ही भव्यजीवोंको धर्मका उपदेश देते हैं ऐसे उपाध्यायोंको मेरा नमस्कार है ॥६॥ जो संसार-सागरके जलसे पार उतारनेमें प्रणेता हैं, अर्थात् खेवटियाके समान है, रत्नत्रयधर्मं में संलग्न हैं, कर्म-शत्रुओंके मदके भंजन करनेवाले हैं और सभी प्राणियोंके सुमित्र हैं वे साधुगण मेरे द्वारा शिरसे वन्दनीय है ||७|| इस प्रकार प्रत्येक परमेष्ठीको और वीर जिनेश्वरको नमस्कार कर मैं पूर्वाचार्योकी परम्परासे चला आ रहा है ऐसे श्रावकाचारको कहूँगा ||८|| जो सर्व प्राणियोंकी हित करनेवाली है, जीव-अजीव आदि तत्त्वोंका और धर्ममार्गका उपदेश करनेवाली है और जिनेन्द्रदेव के मुख कमलसे प्रकट हुई है, ऐसी वाणीको नमस्कार करता हूँ ४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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