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________________ ३६८ श्रावकाचार-संग्रह उक्तं च पूर्वाचायः श्रीपअनन्दिदेवैःद्यूताद्धर्मसूतः पलादिह वको मद्याद्यदोनन्दनाश्चारुः काणुकया मृगान्तकतया स ब्रह्मदत्तो नपः । चौर्यत्वाच्छिवभूतिरन्यवनितादोषाद्दशास्यो हठादेकैकव्यसनाहता इति जनाः सर्वैनं को नश्यति ॥३७३ इति हतदुरितोघं श्रावकाचारसार गदितभवधिलीलाशालिना गौतमेन । विनयभरनताङ्गः सम्यगाकर्ण्य हर्ष विशदमतिरवाप श्रेणिकः क्षोणिपालः ॥३७४ महावतिपुरन्दर प्रशमदग्धरागाङ्करः स्फुरत्परमपौरुषस्थितिरशेषशास्त्रार्थवित् । यशोभरमनोहरीकृतसमस्तविश्वम्भरः परोपकृतितत्परो जयति पद्मनन्दीश्वरः ॥३७५ इति श्रावकाचारसारोद्धारे श्रोपद्मनन्दिमुनिचिरचिते द्वादशवतवर्णनं नाम तृतीयः परिच्छेदः ॥३ प्रशस्तिःयस्य तीर्थकरस्येव महिमा भुवनातिगः । रत्नकोत्तियंतिः स्तुत्यः स न केषामशेषवित् ॥१ अहङ्कारस्फारीभवदमितवेदान्तविबुधोल्लसद्-ध्वान्तश्रेणी क्षपणनिपुणोक्तिद्युतिभर। अघीती जैनेन्द्र र अनिनाथप्रतिनिधिः प्रभाचन्द्रः सान्द्रोदयशयिततापव्यतिकरः ॥२ श्रीमत्प्रभेन्दुप्रभुपादसेवाहेवाकिचेताः प्रसरत्प्रभावः । सच्छावकाचारमुदारमेनं श्रीपद्मनन्दी रचयाञ्चकार ॥३ -संवत् १५८० वर्षे शाके १४४५ प्रवर्तमाने। अभिप्राय वाला पुरुष युधिष्ठिरके समान महाविपत्तिको प्राप्त होता है ॥३७२॥ प्राचीन आचार्य श्री पद्मनन्दि देवने भी कहा है-जुआ खेलनेसे धर्मराज युधिष्ठिर, मांस भक्षणसे बकराजा, मद्यसेवनसे यदु-नन्दन यादव, वेश्या-सेवनसे चारुदत्त, मगया (शिकार) से ब्रह्मदत्त राजा, चोरीसे शिवभूति ब्राह्मण, और अन्य स्त्रीके दोषसे हठात् दशानन रावण ये सब जन एक व्यसनसे मारे गये, तो सभी व्यसनोंके सेवनसे कौन विनष्ट नहीं होगा? अर्थात् सर्व व्यसनसेवी तो अवश्य ही विनाशको प्राप्त होगा ॥३७३।। इस प्रकारके पाप-समूहके विनाश करनेवाले श्रावकाचारको अवधिज्ञानकी लीलावाले श्री गौतम स्वामीने कहा । उसे सम्यक् प्रकारसे श्रवण कर विनय-भारसे अवनत मस्तकवाला निर्मल बुद्धि श्रेणिक महाराज अति हर्षको प्राप्त हुआ ॥३७४|| महाव्रतियोंमें इन्द्र, प्रशम भावसे रॉगाङ्करके भस्म करनेवाले, स्फुरायमान परम पुरुषार्थी, समस्त शास्त्रोंके अर्थ-वेत्ता, यशोभारसे समस्त विश्वम्भरा (पृथ्वी) के मनको हरण करनेवाले और परोपकारमें तत्पर श्रीपद्मनन्दीश्वर जयवन्त रहे ॥३७५॥ इति श्री पद्मनन्दि मुनि विरचित श्रावकाचार सारोद्धारमें द्वादश व्रतोंका वर्णन करनेवाला तीसरा परिच्छेद समाप्त हुआ ग्रन्थकारको प्रशस्तिजिनकी महिमा तीर्थंकरोंके समान भुवनातिशायिनी है, वे समस्त शास्त्रोंके वेत्ता रत्नकोत्ति यति किसके द्वारा स्तुत्य नहीं हैं ? अर्थात् सभीके द्वारा स्तुति करनेके योग्य हैं ॥१॥ अहङ्कारके स्फुरायमान होनेके कारण अपरिमित्त वेदान्तके विशिष्ट बोधसे उल्लसित अन्धकारकी परम्परा के क्षपणमें निपुण युक्त उक्तिरूपी द्युतिके धारक, अध्ययनशील, जैनेन्द्रचन्द्रके प्रतिनिधि और उदयको प्राप्त अत्यन्त शील किरणोंके द्वारा जगत्के पापसमूहके शान्त करनेवाले प्रभाचन्द्र आचार्य जयवन्त रहें ॥२॥ उक्त गुण विशिष्ट श्रीमान् प्रभाचन्द्राचार्यकी चरण सेवामें चित्तका आग्रह रखनेवाले श्री पदमनन्दीने इस उदार श्रावकाचारको रचा ॥३॥ वि० सं० संवत्सर १५८० और शक संवत् १४४५ वर्षके प्रवर्तमान कालमें । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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