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________________ श्रावकाचार-सारोबार ३६५ उक्तचपात्रं ग्राहकमेव केवलमयं दाता वणिग्ग्रामणीनिं स्वैकफलाय च व्यवहृतिस्तद्वर्ण्यमत्रापि किम् । वर्ण्य तावदिदं विना प्रतिभुवं प्रेत्य प्रतिग्राहको धीरान्तःकरणकवृत्तिविशदस्तस्मै प्रदत्ते मुदा ॥३४६ य आचष्टे सङ्ख्यां गगनतलनक्षत्रविषयमिदं वा जानीते कतिचुलुकमानो जलनिधिः । अभिज्ञो जीवानां प्रतिभवपरावर्तकथने प्रमाणं पुण्यस्य प्रथयतु स पात्रापितजने ॥३४७ कालस्यातिक्रमश्चांन्यव्यपदेशश्व मत्सरः । सचित्तक्षेपणं तेन पिधानं चातिथिवते ॥३४८ दुभिक्षे दुस्तरे व्याधौ वृद्धत्वे दुःसहेऽथवा । महावैरकरे वैरिबले हन्तुं समुद्यते ॥३४९ तपोध्वंसविधौ मृत्युकाले वा समुपस्थिते । सल्लेखना विधातव्या संसारभयभीरुभिः ॥३५० संन्यासमरणं दानशीलभावतपःफलम् । निगदन्ति यतस्तस्मिन्नतो यत्नो विधीयताम् ॥३५१ पुत्रमित्रकलत्रादौ स्नेहं मोहं धनादिषु । द्वेषं द्विषत्समूहेषु हित्वा संन्यासमाश्रयेत् ॥३५२ कारितं यत्कृतं पापं तथानुमतमञ्जसा । तदालोच्य गुरूपान्ते निःशल्यः क्षपको भवेत् ॥३५३ यदकार्यमहं दुष्टमतिकष्टतरं त्रिधा । तत्सर्वं सर्वदा सद्धिर्भवद्भिः क्षम्यतां मम ॥३५४॥ कहा भी है-पात्र तो केवल ग्राहक है और यह दाता व्यापार करनेवाले वणिजोंमें अग्रणी है, दान अपन एकमात्र फलके लिए व्यवहार है । इसमें वर्णन करने योग्य विषय क्या है ? वर्णनीय तो यही है कि स्वामोके विना परलोक में प्रतिग्राहक धीर अन्त.करणैकवृत्तिसे निर्मल स्वरूपवाला आत्मा है, वह हर्षसे उसके लिए भरपूर प्रतिफल देता है। भावार्थ-इस जन्ममें तो दाता श्रावक दुकानदारके समान और पात्र ग्राहकके समान और आहाररूप देय वस्तु विक्रयके रूप है। परन्तु परभवमें उसका प्रतिफल देनेवाले स्वामीके विना ही उसको महान् पुण्य उसी दातारूप प्रतिग्राहकको स्वयमेव प्राप्त हो, इस प्रकार इस भवका विक्रेता परभवमें उस पुण्यक फलका ग्राहक बन जाता है ॥३४६।। जो व्यक्ति गगन-तलके नक्षत्र-विषयक संख्याको कह सकता है, अथवा यह समुद्र कितने चुल्लू-प्रमाण जलवाला है, यह जानता है, अथवा जो जीवोंसे प्रतिभवमें किये गये परावर्तन कहने में कुशल है, वही व्यक्ति पात्रको दान देनेवाले मनुष्यके पुण्यके प्रमाणको प्रकट करे, भावार्थ-जेंस आकाशके नक्षत्रोंको गणना, समुद्रके जलका प्रमाण और जीवोंके भवपरावतनोंको कहने में सर्वज्ञ हो समर्थ है, उसी प्रकार सुपात्रको नवधा भक्तिसे दिये गये दानका फल सवज्ञ ही कह सकता है, मुझ जैसा अल्पज्ञ नहीं कह सकता ॥३४७॥ दान देनेके कालका अतिक्रम, अन्यव्यपदेश, मत्सर, सचित्त-निक्षेपण और सचित्तपिधान ये अतिथिसंविभागवतके पाँच अतीचार हैं ॥३४८॥ अब सल्लेखनाका वर्णन करते हैं-भयंकर दुर्भिक्ष होनेपर, निष्प्रतीकार व्याधिके होनेपर, असह्य वृद्धावस्थामें, महावैर करनेवाले शत्रुकी सेनाके प्राणघात करनेको समुद्यत होनेपर, तपको विध्वंस करनेवाले उपसर्गके आनेपर, अथवा मरणकाल उपस्थित होनेपर संसारके भयसे डरनेवाले श्रावकोंको सल्लेखना स्वीकार करनी चाहिए ॥३४९-३५०।। यतः सर्वज्ञोंने संन्यासमरणको जीवनभर किये गये दान, शील, भावना और तपश्चरणका फल कहा है, अतः इसे स्वीकार करने में प्रयत्न करना चाहिए ॥३५१॥ पुत्र, मित्र, स्त्री आदिमें स्नेहको, धनादिकमें मोहको और विद्वेष करनेवालोंमें द्वेषभावको छोड़कर संन्यासमरणका आश्रय लेना चाहिए ||३५२॥ संन्यासमरण स्वीकार करने के समय जीवनमें जो कुछ भी पाप किया हो, कराया हो; तथा पापका अनुमोदन किया हो, उस सबकी गुरुके समीप आलोचना करके शल्य-रहित होकर क्षपक अर्थात् दर्शनज्ञान चारित्र और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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