SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 399
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बायकाचार-संग्रह इत्युक्त्वा मूलतश्छित्वा रागद्वेषमयं तमः। आददीत गरूपान्ते क्षपको हि महाव्रतम् ॥३५५ कालष्यमरति शोकं हित्वाऽऽलस्यं भयं पुनः । प्रसाद्यं चित्तमत्यन्तं ज्ञानशास्त्रमृताम्बुभिः ॥३५६ हित्वा निःशेषमाहारं क्रमात्तस्तैस्तपोबलः । तनुस्थिति ततः शुद्धदुग्धपानी समाचरेत् ॥३५७ कियद्भिर्वासहित्वा स्निग्धपानमपि क्रमात । प्रासुके शुद्धपानीये निवघ्नीयात्तनुस्थितिम् ॥५८ अपहाय पयःपानमुपवासमुपाश्रयेत् । दर्शनज्ञानचारित्रसेवाहेवाकिमानसः ॥३५९ दर्शनज्ञानचारित्रतपश्चरणलक्षणाम् । आराधनां प्रसन्नेन चेतसाऽऽराधयेत्सुधीः ॥३६० अथवा सच्चिदानन्दाराधनेन न संशयः । तच्चतुष्टयमादिष्टं सुखमाराधितं भवेत् ॥३६१ स्मरन् पञ्चनमस्कारं चिदानन्दं च चिन्तयत् । दुःखशोकविमुक्तात्मा हर्षतस्तनुमुत्सृजेत् ॥६६२॥ उक्तं चामृतचन्द्रसूरिभिः मरणान्तेऽवश्यमहं विधिना सल्लेखनां करिष्यामि । इति भावनापरिणतोऽनागतमपि पालयेदिदं शीलम् ॥३.३ मरणेऽवश्यम्भाविनि कषायसल्लेखनातनूकरणमात्रे। रागादिमन्तरेण व्याप्रियमाणस्य नात्मघातोऽस्ति ॥३६४ यो हि कषायाविष्ट: कुम्भकजलधूमकेतुविषशस्त्रः । व्यपरोपयति प्राणांस्तस्य स्यात्सत्यमात्मवधः ॥३६५ तपरूप आराधनाओंका आराधक होवे ॥३५३।। संन्यास स्वीकर करते समय सभी संबद्ध व्यक्तियोंसे कहे कि मैंने जो मन वचन कायसे आपलोगोंके साथ अति कष्टकारी नहीं करने योग्य दुष्ट कार्य किये हैं, आप सब सज्जन मेरे उन अपराधोंको क्षमा करें ॥३५४॥ इस प्रकार कहकर और रागद्वेषमयो महान्धकारको मूलसे छेदन करके वह क्षपक गुरुके समीप महाव्रतोंको ग्रहण करे ॥३५५।। इस प्रकार हृदयकी कलुषता, अरति, शोक, आलस्य और भयको छोड़कर तत्पश्चात् शास्त्रज्ञानरूप अमृत जलसे चित्तको अत्यन्त स्वच्छ करना चाहिए ॥३५॥ - संन्यास स्वीकार करनेके पश्चात् अवमोदर्यादि उन-उन तपोबलोंके द्वारा क्रम क्रमसे समस्त अन्न रूप आहारका परित्याग करके शुद्ध दुग्ध और जलके पानसे शरीरकी स्थितिको रखे ॥३५७|| पुनः कितने ही दिनोंके द्वारा स्निग्धपानको भी क्रमसे छोड़कर केवल प्रासुकशुद्ध जलपानसे शरीरको स्थितिको रखे ॥३५८॥ पुनः जल-पानको भी छोड़ कर उपवासका आश्रय लेवे और दर्शन, ज्ञान, चारित्रको साधनामें मनको एकाग्र करे ॥३५९।। उस समय उस बुद्धिमान् क्षपकको दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपश्चरण स्वरूप आराधनाकी प्रसन्न मनसे आराधना करनो चाहिए ॥३६०॥ अथवा सत्-चिद्-आनन्द स्वरूप शुद्ध आत्माकी आराधना करनेसे ही वे चारों आराधनाएं सुखसे आराधित हो जातो हैं ॥३६१।। अन्तिम समय पंच नमस्कार मंत्रका स्मरण करते हुए और चिदानन्द स्वरूपका चिन्तवन करते हुए दुःख, शोकसे रहित होकर हर्ष-पूर्वक शरीरका उत्सर्ग (त्याग) करे ॥३६२।। श्री अमृतचन्द्रसूरिने भी कहा है-'मरणके अन्तमें मैं अवश्य ही विधिपूर्वक सल्लेखनाको करूगा' इस प्रकारको भावनासे परिणत श्रावक इन अनागत भी सल्लेखनारूप शीलवतका पालन करे ॥३६३।। अवश्यम्भावी मरणके समय कषायोंको कृश करनेके साथ शरीरको कृश करनेमें व्यापार करनेवाले पुरुषका समाधिमरण राग-द्वेषादि भावोंके नहीं होनेसे आत्मघात नहीं है ॥३६४॥ हाँ, जो पुरुष कषायोंसे युक्त होकर कुम्भक (श्वास-निरोध), जल, अग्नि, विष और शस्त्रादिसे प्राणों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy