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श्रावकाचार-संग्रह विद्धं विचलितस्वादं व्याधिवृद्धिविधायकम् । उच्छिष्टं नीचलोकाहं नान्नं पात्राय सम्मतः ॥३३६ प्रामान्तरात्समानीतं दुर्जनस्पर्शदूषितम् । न देयमापणकोतं भूतप्रेतादिकल्पितम् ॥३३७ ।। सावधं पुष्पितं मन्त्रानीतं सिद्धान्तदूषितम् । उपायनीकृतं नान्नं मुनिभ्योऽत्र प्रदीयते ॥३३८ दधिप्पि पयःप्रायमपि पर्युषितं मतम् । गन्धवर्णरसभ्रष्टमन्यत्सवं विनिन्दितम् ॥३३९ अभक्तानां सदणां कारुण्योज्झितचेतसाम् । दीनानां च निवासेषु नाश्नन्ति मुनयः क्वचित् ॥३४० उक्तंचनाहरन्ति महासत्त्वाश्चित्तेनाप्यनुकम्पिताः । किन्तु ते दैन्यकारुण्यसङ्कल्पोज्झितवृत्तयः ॥३४१ उक्तं चामृतचन्द्र सूरिभिःहिंसायाः पर्यायो लोभोऽत्र निरस्यते यतो दाने । तस्मादतिथिविरमणं हिसाव्युपरमणमेवेष्टम् ॥३४२
गृहमागताय गुणिने मधुकरवृत्त्या परानपीडयते । वितरति यो नातिथये स कथं न हि लोभवान् भवति ॥३४३ कृतमात्माथं मुनये ददाति भक्तमिति भावितत्यागः ।
अरतिविषादविमुक्तः शिथिलितलोभे भवहिसैव ॥३४४ पात्रदानेन संसारं तरन्ति त्वरितं नराः । वाधिवधिष्णुकल्लोलं पोतेनेव नियामकः ॥३४५ स्वाध्यायकी वृद्धि करे, वही द्रव्य देनेके योग्य है ॥३३५॥ जो अन्न घुना हो, स्वाद-चलित हो, व्याधिकी वृद्धि करने वाला हो, जूंठा हो, और नीच लोगोंके योग्य हो वह अन्न पात्रके लिए देने योग्य नहीं माना गया है ॥३३६॥ जो अन्न अन्य ग्रामसे लाया गया हो, दुर्जनके स्पर्शसे दूषित हो, बाजारसे खरीदा गया हो, भूत-प्रेतादिके लिए संकलित हो, सावध हो, पुष्पित हो, मंत्रस मॅगाया गया हो. सिद्धान्त (आगम) से विरुद्ध हो, किसी दूसरेके द्वारा भेंट किया गया हो, वह अन्न मुनियों के लिए नहीं दिया जाता है अर्थात् ऐसा अन्न अदेय है ॥३३७-३३८|| जो आहार दही, घी और दूधको बहुलता वाला है, रात्रि वाला है, वर्ण, गन्ध और रससे भ्रष्ट है, वह सब निन्दित माना गया है, अर्थात् ऐसा अन्न पात्रोंको देनेके लिए योग्य नहीं है ॥३३९|| जो भक्ति रहित हैं, अहंकार सहित हैं, दयाभावसे विमुक्त चित्तवाले हैं, और दीन हैं, ऐसे लोगोंके घरों में मुनिजन कभी आहार नहीं करते हैं ॥३४०॥
कहा भी है-चित्तसे अनुकम्पित भी महा-सत्त्वशाली साधु दीन-अनाथ आदिका आहार नहीं ग्रहण करते हैं। क्योंकि वे दैन्य, कारुण्य और संकल्प-विकल्पोंस रहित मनोवृत्तिवाल होते हैं ।।३४१॥
श्री अमृतचन्द्रसूरिने भी कहा है-यतः पात्रको दाम देनेपर हिंसाका पर्याय स्वरूप लोभ दूर होता है, अतः अतिथिको दान देना हिंसाका परित्याग ही कहा गया है ।।३४२॥ जो गृहस्थ अपने घर आये हुए गुणशाली, मधुकरी वृत्तिसे दूसरोंको पीड़ा नहीं पहुँचानेवाले ऐसे अतिथिके लिए दान नहीं देता है, वह लोभवाला कैसे नहीं है ? अर्थात् अवश्य ही लोभी है ॥३४३।। जो अपने लिए बनाये गये भोजनको मुनिके लिए देता है, अरति और विषादसे विमुक्त है, और लोभ जिसका शिथिल हो रहा है ऐसे गहस्थका भावयुक्त त्याग (दान) अहिंसास्वरूप ही है ॥३४४|| पात्रदानके द्वारा मनुष्य संसार-सागरको तुरन्त पार कर लेते हैं। जैसे कि समुद्र की उत्तरोत्तर बढ़ती हुई कल्लोलोंको नावका नियामक पोतके द्वारा शीघ्र पार कर लेता है ॥३४५।।
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