________________
श्रावकाचार-सारोवार
सङ्ग्रहमुच्चस्थानं पादोदकमर्चनं प्रणामं च । वाक्कायमनःशुद्धीरेषणशुद्धि च विधिमाहुः ॥३२४ ।।
। ऐहिकफलानपेक्षा क्षान्तिनिःकपटता ईर्ष्यानसूयत्वम् ।।
___ अविषादित्वं मुदिता निरहङ्कारत्वमिति दातगुणाः ॥३२५ अथवा त्रिविधो दाता भवतिभागद्वयो कुटुम्बार्थे सञ्चयार्थे तृतीयकः । स्वरायो यस्य धर्मार्थ तुर्यस्त्यागी स सत्तमः ॥३२६ भागद्वयं तु पोष्यार्थे कोशार्थे तु त्रयं सदा । षष्ठं दानाय यो युङ्कते स त्यागी मध्यमोऽधमात् ॥३२७ स्वस्वस्य यस्तु षड्भागान् परिवाराय योजयेत् । त्रीश्च सञ्चद्दशांशं तु धर्म त्यागी लघुश्च सः ॥३२८ द्विधा दानं समाविष्टं पात्रापात्रादिभेदतः । तत्पात्रं त्रिविधं शुद्धं भुक्तिमुक्तिप्रदायकम् ॥३२९ महावतानि य. पञ्च विर्भात्त जितमन्मथः । रागद्वेषविमुक्तात्मा स भवेत्पात्रमुत्रमम् ॥३३० व्यक्तसम्यक्त्वसंयुक्तं पञ्चाणुव्रतभूषितः । यः स स्यान्मध्यमं पात्रं जिनधर्मप्रभावकः ॥३३१ यस्य व्रतविमुक्तस्य केवलं दर्शनं भवेत् । स जघन्यं भवेत्पात्रं निगदन्ति महर्षयः ॥३३२ सम्यक्त्वजितोऽने तपःकर्माणि कर्मठः । यः स रम्यतरोऽपि स्यात्कुपात्रं गदितं जिनैः ॥३३३ सम्यक्त्वरहितोऽशेषकषायकलुषीकृतः । यो विमुक्तवतोऽपात्रं स स्यान्मिथ्यात्वदूषितम् ॥३३४ रागद्वेषासंयमदुःखभयाादिकं न यः कुरुते । द्रव्यं तदेव देयं सुतपःस्वाध्यायवृद्धिकरम् ॥३३५ मनःशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि और एषणाशुद्धि, इन्हें आचार्य नव पुण्य या नवधा भक्ति रूप दानको विधि कहते हैं ॥३२४॥ इस लोक-सम्बन्धी फलकी अपेक्षा न रखना, क्षमा, निष्कपटता, ईर्ष्या-असूया नहीं करना, अविषादिता, प्रमोदभाव और निरहंकारता ये दाताके सात गुण हैं ॥३२५||
अथवा दाता तीन प्रकारके होते हैं जो गृहस्थ अपनी आयके चार भाग करके दो भाग तो कुटुम्बके भरण-पोषणमें व्यय करता है, तोसरे भागका भविष्यकालके लिए संचय करता है, और चौथे भागका धर्मके लिए त्याग करता है, वह श्रेष्ठ दाता है ॥३२६॥ जो अपनी आयके छह भाग करके दो भाग तो पुत्रादि पोष्यवर्ग (कुटुम्ब)के लिए व्यय करता है, तीन भाग कोश (भंडार) के लिए सदा सुरक्षित रखता है और छठा भाग दानके लिए देता है, वह अधमकी अपेक्षा मध्यम दाता है ॥३२७।। जो अपनी आयके दश भाग करके छह भाग तो परिवारके पालन-पोषणके लि: लगाता है, तीन भागोंका संचय करता है और दशवां भाग धर्म कार्यमें लगाता है, वह लघु या जघन्य दाता है ||३२८|| पात्र और अपात्र आदिके भेदसे दो प्रकारका दान कहा इनमें मुक्ति (स्वर्गादिके भोग) और मुक्तिका देनेवाला शुद्ध पात्र तीन प्रकारका कहा गया है। ॥३२९॥ जो कामदेवको जीतनेवाला इन्द्रियजयी पंच महाव्रतोंको धारण करता है रहित वीतरागो साधु है, वह उत्तम पात्र है, ॥३३०॥ जो व्यक्त सम्यक्त्वसे संयुक्त पंच अणुव्रतोंसे भूषित है और जिनधर्मको प्रभावना करता है, ऐसा श्रावक मध्यम पात्र है ।।३३१।। व्रतोंसे रहित जिस पुरुषके केवल सम्यग्दर्शन है, ऐसा अविरत सम्यग्दृष्टि है, उसे महर्षिजन जघन्य पात्र कहते हैं ।।३३।। जो अनेक प्रकारके तपश्चरण करने में कर्मठ है, किन्तु सम्यग्दर्शनसे रहित है, वह रम्यतर है अर्थात् बाहिरसे अति उत्तम दिखता है, फिर भी जिनदेवने उसे कुपात्र कहा है ॥३३३।। जो सम्यक्त्व-रहित है, समस्त कषायोंसे कलुषित चित्तवाला है। व्रत-रहित है और मिथ्यात्वसे दूषित है, वह अपात्र है ।।३३४॥
जो पदार्थ राग, द्वेष, असंयम, दुःख, भय, आत्ति-पीड़ा आदिको नहीं करे और उत्तम तप
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org