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श्रावकाचार-संग्रह
प्रातरुत्थाय संशुद्धकायस्तात्कालिकीं क्रियाम् । रचयेच्च जिनेन्द्राच जलगन्धाक्षतादिभिः ॥ ३१३ उक्तेन विधिना नोत्वा द्वितीयं च दिनं निशाम् । तृतीयवारस्याधं प्रयत्नादतिवाहयेत् ॥३१४ षोडशहरानेवं गमयत्यागमेक्षणः । यः स हारायते भव्यश्चारुमुक्तिवधूरसि ॥ ३१५ स्नानगन्धवपुर्भूषा नास्य नारीनिषेवणम् । सर्व सावद्यकर्माणि प्रोषधस्थो विवर्जयेत् ॥ ३१६ यो निरारम्भमप्येकमुपवासमुपाश्रयेत् । बहुकर्मक्षयं कृत्वा सोऽक्षयसुखमश्नुते ॥३१७ आरम्भजलपानाम्यां युक्तोऽनाहार उच्यते । अनुपवासस्त्वनारम्भादुपवासोऽम्बुपानतः ॥ ३१८ महोपवासो द्वयवजिता सदा जिनागमाकर्णनपाठचिन्तनैः ।
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अलङ्कृतः प्रासुकभूमिशय्यया जिनालये स्वालय एव वा रहः ।।३१९ आदानं संस्तरोत्सर्गा अनवेक्ष्याप्रमार्ज्जु च । स्मृत्यनुपस्थापनं पञ्चानादरः प्रोषधव्रते ॥३२० स्वस्य वित्तस्य यो भागः कल्प्यतेऽतिथिहेतवे । अतिथेः संविभागं तं जगदुजंगदुत्तमाः ॥३२१ स्वयमेवातति व्यक्तव्रतो यः सदनं सुधीः । भिक्षार्थं ज्ञातशब्दार्थेः सोऽतिथिः परिकथ्यते ॥ ३२२ नवपुण्यविधातव्या प्रतिपत्तिस्तपस्विनाम् । सर्वारम्भविमुक्तानां दात्रा सप्तगुणैषिणा ।। ३२३
पर्वके दिन प्रातः काल उठकर तात्कालिक शौचादि क्रियाओंको करके शुद्ध शरीर होकर जल - गन्ध-अक्षत आदि द्रव्योंसे जिनेन्द्रदेवकी पूजा करे || ३१३|| उक्त विधिसे दूसरे दिनको और रात्रिको बिताकर और तीसरे दिनके अर्धभागको धर्मध्यानमें बिताये || ३१४ || इस प्रकार से जो आगम-नेत्रवाला श्रावक सोलह पहरोंको व्यतीत करता है, वह भव्य सुन्दर मुक्तिरूपी वधूके वक्षःस्थल पर हारके समान आचरण करता है, अर्थात् मोक्षलक्ष्मी के हृदयका हार बनता है ||३१५|| इस प्रोषधव्रती के स्नान, गन्ध और शरीर श्रृंगार नहीं है, और न स्त्रीका ही सेवन हैं । प्रोषध में स्थित पुरुषकों सभी सावद्य कर्म छोड़ देना चाहिए ||३१६|| जो श्रावक आरम्भ-रहित एक भी उपवासको करता है, वह बहुत कर्मोंका क्षय करके अक्षय सुखको प्राप्त करता है ॥३१७॥ पर्व के दिन आरम्भ और जल-पानसे युक्त होकर शेष तीन प्रकारके आहारका त्याग करता है, उसे उपवास न कहकर 'अनाहार' कहा जाता है । पर्वके दिन आरम्भका त्यागकर केवल जल-पान करता है वह उपवास अनुपवास कहलाता है || ३१८|| जो आरम्भ और चारों बहार इन दोनोंस रहित उपवास किया जाता है वह महोपवास कहलाता है । श्री जिनेन्द्रके आगमका श्रवण और पाठ-चिन्तनसे अलंकृत होकर प्रासुक भूमि पर या प्रासुक शय्या पर जिनालय में अथवा अपने ही आलय (भवन) में एकान्त स्थान में स्थित होकर यह उपवास करना चाहिए ||३१ ॥ अनवक्षितअप्रमार्जित संस्तरादिका आदान या उत्सर्ग या संस्तरण; स्मृत्यनुपस्थापन और अनादर ये पाँच प्रोष व्रत के अतीचार हैं || ३२०||
अब अतिथिसंविभाग शिक्षाव्रतका वर्णन करते हैं- अतिथि के लिए अपने धनका जो भाग संकल्प किया जाता है, उसे लोकोत्तम पुरुषोंने अतिथिसंविभाग व्रत वहा है || ३२१|| जो सुधी साधु श्रावक दशामें स्वीकृत 'पर्व के नियमसे प्रोषधोपवास करूंगा' इस प्रोव्रतको छोड़कर अर्थात् तिथि- विशेषका विचार न करके भिक्षा के लिए स्वयं ही घर-घर घूमता है, शब्दार्थके (व्याकरणशास्त्र) ज्ञाता पुरुष उसे अतिथि कहते हैं || २२|| सप्त गुणोंके धारण करने के इच्छुक दाताको सर्व प्रकारके आरम्भसे रहित तपस्वियों की प्रतिपत्ति नवधा भक्ति से करनी चाहिए || ३२३ || अतिथिका संग्रह (प्रतिग्रह-पडिगाहना) उच्चस्थान, पाद प्रक्षालन, पूजन, प्रणाम,
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