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________________ श्रावकाचार-सारोबार कायवाङ्मानसरूफारभक्तिपूर्वकमाचरेत् । सामायिकं समाधीनो जनो निर्वाणमश्नुते ॥३०२ सामायिके स्थिरा यस्य बुद्धिः स भरतेशवत् । केवलज्ञानसम्प्राप्ति द्रुतं संलभते नरः ॥३०३ उक्तंचसामायिकश्रितानां समस्तसावद्ययोगपरिहारात । भवति महावतमेषामुदयेऽपि चरित्रमोहस्य ॥३०४ सामयिके सारम्भाः परिग्रहा नैव सन्ति सर्वेऽपि । चेलोपसृष्टमुनिरिव गृही तदा याति यतिभावम्।।३०५ काष्ठं वह्निरिव प्रसृत्वरतमस्तोमं च भास्वानिव स्फूजन्मेघकदम्बकं मरुदिवाज्ञान प्रबोधोदयः । साम्यस्वन उपयःप्रवाहजनितश्रीभव्यसत्त्वप्रियो हन्ति प्रोद्धतकर्मघमखिलं सामायिकानोकहः॥३०६ कायवाक्चेतसा दुष्टप्रणिधानमनादरः । स्मृताः सामायिके स्मृत्यनुपस्थानमतिक्रमाः ॥३०७ चतुष्पव्यां चतुर्भेदाहारत्यागैकलक्षणम् । वदन्ति विदिताम्नायाः प्रोषधव्रतमुत्तमम् ॥३०८ कृत्वोपवासघनस्य पूर्वस्मिन् दिवसे सुधीः । मध्याह्न भोजनं शुद्धं यायाच्छोमज्जिनालयम् ॥३०९ तत्र गत्वा जिनं नत्वा गुरूपान्ते विशुद्धघोः । आददीत हृषिकार्यविमुख: प्रोषधव्रतम् ॥३१० विविक्तवसति श्रित्वा हित्वा सावद्यकर्म तत् । विमुक्तविषयन्तिष्ठेन्मनोवाक्कायगुप्तिभिः ॥३११ अतिक्रम्य दिनं सर्व कृत्वा सान्ध्यं विधि पुनः । त्रियामां गमयेच्छुद्धसंस्तरे स्वच्छमानसः ॥३१२ भक्ति-पूर्वक सामायिक करना चाहिए । यह त्रियोगशुद्धि है। इस सात प्रकारको शुद्धियोंसे सामायिककी समाधिमें लीन हआ पुरुष शीघ्र निर्वाणको प्राप्त करता है ॥३०२|| जिस पुरुषको सामायिक व्रतमें बुद्धि स्थिर रहनो है, वह पुरुष भरत चक्रवर्तीके समान शीघ्र केवलज्ञानको प्राप्त करता है ।।३०३|| कहा भी है-समस्त सावद्ययोगके परिहारसे सामायिक शिक्षाव्रतके आश्रय लेनेवाले मनुष्योंके चारित्र मोहनीयके उदय होनेपर भी उनके अणुव्रत महाव्रतके समान हो जाते हैं ।।३०४।। सामायिकके समय आरम्भ-सहित भो परिग्रह नहीं रहते हैं, एकमात्र वस्त्र रहता है, अतः उस समय वह गृहस्थ वस्त्रसे परिवेष्टित मुनिके समान मुनिपनेको प्राप्त हो जाता है ॥३०५॥ जैसे अग्नि काष्ठको भस्म कर देती है, सूर्य बढ़ते हुए महान्धकारके समूहको विनष्ट कर देता है, वायु उमड़ते हुए मेघ-समुदायको उड़ा देती है और प्रबोध (सद्-ज्ञान) का उदय अज्ञानका विनाश कर देता है, उसी प्रकार क्षमताभावरूप स्वच्छ जलके प्रवाहसे जिसके भीतर शान्त रस रूप लक्ष्मी प्रकट हुई है, ऐसा भव्यजीवोंका प्रिय सामायिक रूप वृक्ष अति उद्धत कर्मोंके उदयसे उत्पन्न धर्म (घाम) को शान्त कर देता है ॥३०६।। कायदुःप्रणिधान, वाक्दुःप्रणिधान, मनोदुःप्रणिधान, अनादर और स्मृत्यनुपस्थान ये पाँच सामायिक शिक्षाव्रतके अतीचार माने गये हैं ॥३०७|| अब प्रोषध शिक्षाव्रतका वर्णन करते हैं-प्रत्येक मासकी दो अष्टमी और दो चतुर्दशी इन चार पर्वोमें चारों प्रकारके आहारका त्याग करनेको जैन आम्नायके ज्ञाता मुनिजन उत्तम प्रोषधव्रत कहते हैं ॥३०८।। उपवासके दिनसे पूर्वके दिन बुद्धिमान् श्रावक मध्याह्न कालमें शुद्ध भोजन करके श्री जिनालयमें जावे ॥३०९|| वहाँ जाकर श्री जिनेन्द्र देवको नमस्कार करके वह विशुद्ध बुद्धि श्रावक इन्द्रियों के विषयोंसे विमुख होता हुआ गुरुके समीप प्रोषधव्रतको ग्रहण करे ॥३१०॥ पुनः एकान्त स्थानका आश्रय करके सावद्य कार्योंको छोड़कर इन्द्रियोंके विषयोंसे विमुक्त होता हुआ मन वचन कायकी गुप्तिके साथ रहे ॥३११।। इस प्रकार उपवासके पूर्वका दिन बिताकर सन्ध्याकालको सर्वविधि करके पुन: स्वच्छ मन होकर शुद्ध संस्तरपर रात्रिके तीन पहर बितावें ॥३१२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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