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________________ ३६. श्रावकाचार-संग्रह देशावकाशिकं वा सामयिकं प्रोषधोपवासश्च । वैयावृत्त्यं शिक्षावतानि चत्वारि शिष्टानि ॥२९० दिग्वतेन मितस्यापि देशस्य दिवसादिषु । पुनः सङ्क्षपणं यत्तद्-प्रतं देशावकाशिकम् ॥२९१ वनभवनक्षेत्राणां ग्रामापणनगरयोजनानां च । सोमानं समयज्ञाः प्राहुः शिक्षावते प्रथमे ॥२९२ वासरमयनं पक्षं मासं संवत्सरं चतुर्मासम् । देशावकाशिकस्य स्मरन्ति कालावधिः मुनयः ॥२९३ देशावकाशिकं सम्यग व्रतं ये वषते बुषाः । महाव्रतफलं तेषां बहुपापनिवृत्तितः ॥२९४ पुद्गलक्षेपणं प्रेष्यप्रयोगानयने तथा । शब्दरूपानुपातौ च पञ्च देशावकाशिके ॥२९५ रागद्वेषपरित्यागरोषात्सावधकर्मणाम् । समता या तमाम्नातं बुधैः सामायिकं व्रतम् ॥२०६ सामायिकविधौ क्षेत्र कालश्च विनयासने । कायवाङ्मनसां शुद्धिः सप्तैतानि बिदुर्बुधाः ॥२९७ लोकसङ्घट्टमिर्मुक्ते कोलाहलविजिते । वीतदंशे विधातव्यं स्थाने सामायिकं व्रतम् ॥२९८ एकान्त वा वने शून्ये गृहे चैत्यालयेऽथवा । सामायिकं वतं शुद्धं चेतव्यं वीतमत्सरैः ॥२९९ पूर्वाहे किल मध्याह्नपराले विमलाशयः । सामायिकस्य सिद्धान्ततत्त्वज्ञाः समयं जगुः ॥३०० सत्पर्यङ्कासनासीनो रागाद्यकलुषोकृतः । विनयाद्यो निबन्धीयान्मतिं सामायिकवते ॥३०१ संख्याको स्वीकार करता है, निश्चयसे उस पुरुषमें मुक्ति-कान्ता रमणके लिए अभिलाषिणी होकर उसे पानेका प्रयत्न करती है ।।२८९।। अब शिक्षाव्रतोंका वर्णन करते हैं । कहा भी है-देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास और वैयावृत्त्य ये चार शिक्षा व्रत कहे गये हैं ।।२९०।। दिग्वतके द्वारा सीमित किये गये देशका दिन आदिकी मर्यादामें और भी जो संक्षेप करना सो देशावकाशिकव्रत है ॥२९१॥ इस प्रथम देशावकाशिक शिक्षाव्रतमें आगमके ज्ञाताजनोंने वन, भवन, खेत, ग्राम, बाजार, नगर और योजनों की सीमारूप क्षेत्र सीमा कही है ॥२९२॥ वासर (दिन), अयन (छ: मास), पक्ष, मास, वर्ष और चतुर्मास आदिको मुनिजन देशावकाशिककी काल-मर्यादा कहते हैं ॥२९३॥ जो बुद्धिमान् पुरुष सम्यक् प्रकारसे देशावकाशिक शिक्षाव्रतको धारण करते हैं उनके देश और कालकी मर्यादा द्वारा बहुत पापोंकी निवृत्ति होनेसे अणुव्रत भी महाव्रतके फलको देते हैं ॥२९४॥ कंकड़-पत्थर आदि पुद्गलोंका क्षेपण, प्रेष्य-प्रयोग, आनयन, शब्दानुपात और रूपानुपात ये पांच देशावकाशिकव्रतके अतीचार हैं ॥२९५।। ____ अब सामायिक शिक्षा व्रत कहते हैं-राग और द्वेषके परित्यागसे तथा सावध कार्योंके निरोधसे जो हृदयमें समता भाव जागृत होता है, ज्ञानियोंने उसे सामायिक शिक्षाव्रत कहा है ॥२९६|| सामायिक करनेकी विधिमें ज्ञानियोंने क्षेत्र, काल, विनय, आसन, मन, वचन और काय इन सातकी शुद्धि कही है ।।२९७।। लोगोंके संघर्षसे विमुक्त, कोलाहलसे विवर्जित और डांस. मच्छरसे रहित ऐसे क्षेत्र शुद्धिवाले स्थान में सामायिक व्रत करना चाहिए ॥२९८॥ एकान्त स्थानमें, वनमें, शन्य गृहमें अथवा चैत्यालयमें मत्सर भावसे रहित श्रावकोंको शुद्ध सामायिकव्रतकी वृद्धि करनी चाहिए ।।२९९|| निर्मल मन होकर पूर्वाह्नमें, मध्याह्नमें और सायंकालमें सामायिक करे । सिद्धान्तके रहस्यज्ञोंने यह सामायिकका समय कहा है। यह काल शुद्धि है ॥३००।। उत्तम पर्यङ्कासन या पद्मासन लगाकर राग-द्वेष आदिको कलुषतासे रहित होकर विनयसे सामायिकव्रतमें अपनी बुद्धिको लगावे । यह आसनशुद्धि और विनयशुद्धि है ॥३०१।। शरीर, वचन और मनसे अत्यन्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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