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________________ श्रावकाचार-सारोद्धार ३५९ अङ्कनं नासिकावेधो मुष्कच्छेदोऽद्मिभञ्जनम् । कर्णापनयनं नाम निर्लाञ्छनमुदीरितम् ॥२७८ मौखर्यमसमीक्ष्याधिकरणं च व्यतिक्रमाः । आनर्थक्यं च कौत्कुच्यं कन्दर्पोऽनर्थदण्डगाः ॥२७९ स्वशक्त्या क्रियते यत्र संख्या भौगोपभोगयोः । भोगोपभोगसङ्ख्याख्यं तृतीयं तद्-गुणवतम् ॥२८० स्नानभोजनताम्बूलमूलो भोगो बुधैः स्मृतः । उपभोगास्तु वस्त्रस्त्रीभूषाशय्यासनादिकाः ॥२८१ भोगोपभोगत्यागाथं यमश्च नियमः स्मृतः । यमो निरवधिस्तत्र सावधिनियमः पुनः ॥२८२ स्रक्चन्द नशयनासनमज्जनवरयानवसनभूषासु । सदनतुरङ्गमरमणीभोजनताम्बूलमेतेषु ॥२८३ यामघननिशापक्षमाससंवत्सरादिभिः । कृत्वा कालावधिं कुर्यात्प्रत्याख्यानं विचक्षणः ॥२८४ उक्तं चभोगोपभोगहेतोः स्थावरहिंसा भवेत् किलामीषाम् । भोगोपभोगविरहाद् भवति नलेशोऽपि हिंसायाः२८५ वाग्गुप्तस्त्यिनृतं नादत्तादानविरहतः स्तेयम् । नाब्रह्म मैथुनमुचः सङ्गेन नाङ्गेऽप्यमूच्छंस्य ॥२८६ भोगोषभोगमूला विरताविरतस्य नान्यता हिंसा । अधिगम्य वस्तुतत्त्वं स्वशक्तिमपि तावपि त्याज्यौ ॥२८७ सचित्तमिश्रो दुःपक्क आहारोऽभिषवस्तथा। सचित्तस्तेन सम्बन्धः पञ्च तार्तीयशीलगाः ॥२८८ त्रिशुद्धया कुरुते योऽत्र सङ्ख्यां भोगोपभोगयोः । तस्मिन् प्रयतते नूनं रिरंसुर्मुक्तिकामिनी ॥२८९ काटना ये सब निलाञ्छन कार्य कहे गये हैं ।।२५८। इन उक्त कार्योंको तथा इसी प्रकारके जो अन्य हिंसा-प्रधान एवं प्राणियोंको कष्टप्रद कार्य हैं, उन सबको करनेका त्याग अनर्थदण्डके त्यागीको करना चाहिए। मुखरता, असमीक्ष्याधिकरण, अनर्थक भोगोपभोगका संग्रह, कौत्कुच्य और कन्दर्प ये पांच अनर्थदण्डविरतिव्रतके अतीचार हैं ।।२७९|| अब भोगोपभोग परिमाण नामक तीसरे गुणवतका वर्णन किया जाता है-अपनी शक्तिके अनुसार भोग और उपभोग के पदार्थों की संख्याका परिमाण करना सो भोगोपभोग संख्यान नामका तीसरा गुणवत है ।।२८०।। विद्वानोंने स्नान, भोजन, ताम्बूल आदिके सेवन भोग और वस्त्र, स्त्री, आभूषण, शय्या और आसन आदिको उपभोग कहा है ।।२८१।। भोग और उपभोगके त्यागके लिए यम और नियम कहे गये हैं । मर्यादा-रहित अर्थात् जीवन-पर्यन्तके लिए जो त्याग किया जाता है, ह यम कहलाता है और मर्यादा-सहित त्यागको नियम कहा गया है ।।२८२!! पुष्प-माला, चन्दन, शयन, आसन, मज्जन, यान-वाहन, वस्त्र, आभूषण, भवन, तुरंगम, रमणो, भोजन, ताम्बूल, इत्र भोग और उपभोगकी वस्तुओंमें पहर, दिन, रात, पक्ष, मास, वर्ष आदिके द्वारा कालकी सीमा करके विद्वान् पुरुषको प्रत्याख्यान करना चाहिए ।।२८३-२८४।। कहा भी है-इन भोग और उपभोगके कारणोंसे निश्चयतः स्थावर जीवोंकी हिंसा होती है और भोग-उपभोगके अभावसे हिंसाका लेश भी नहीं होता है ।।२८५॥ वचन गुप्तिसे अनृत (असत्य) पाप नहीं होता, बिना दिये पर वस्तुके नहीं ग्रहण करनेसे चौर्य दोष भी नहीं होता, मैथुनसेवनके त्यागसे अब्रह्मका पाप भी नहीं लगता, और शरीरमें भी मूर्छा-रहितके परिग्रहका भी पाप नहीं होता है ।।२८६।। विरताविरत श्रावकके भोग और उपभोगके मूल कारणसे हिंसा होती है, अन्य कारणसे नहीं। ऐसा वस्तु स्वरूप जानकर भोग और उपभोग दोनों का ही अपनी शक्तिके अनुसार त्याग करना ही चाहिए ।।२८७।। सचित्त-आहार, सचित्त सम्मिश्र-आहार, सचित्त-सम्बद्ध आहार, दुष्पक्व आहार और गरिष्ठ आहार ये पाँच भोगोपभोग संख्यान नामक तोसरे शीलवतके अतीचार हैं ॥२८८।। जो पुरुष मन वचन काय इन तीन योगोंकी शुद्धिपूर्वक भोग और उपभोगकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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