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________________ ३५८ श्रावकाचार-संग्रह वरिषात-पुरध्वंस-परस्त्रीगमनादिकम् । विपत्पदमपध्यानमिदं दूराद् विवजयेत् ॥२६६ विषोदूखलयन्त्रासिमुशलज्वलनादिकम् । हिंसोपकारकं दानं न देयं करुणापरः ॥२६७ रागवर्षनहेतूनामबोधप्रविधायिनाम् । शिक्षणश्रवणादीनि कुशास्त्राणां त्यजेत्सुधीः ॥२६८ तरूणां मोटनं भूमेः खननं चाम्बुसेचनम् । फलपुष्पोच्चयश्चतत्प्रमदाचरणं त्यजेत् ।।२६९ केकिकुकुंटमार्जारसारिकाशुकमण्डला: । पोष्यन्ते न कृतप्राणिघाताः पारापता अपि ॥२७० बङ्गारभ्राष्टकरणमयःस्वर्णादिकारिताः । इष्टिकापाचनं चेति त्यक्तव्यं मुक्तिकाङ्क्षिभिः ॥२७१ तुरङ्गमलुलायोक्षखराणां भारवाहिनाम् । लाभाथं च नखास्थित्वविक्रयं नैव संधयेत् ॥२७२ नवनीतवसामद्यमध्वादीनां च विक्रयः। द्विपाच्चतुःपाद्विक्रयो न हिताय मतः क्वचित् ॥२७३ खेटनं शकटादीनां घटनं विक्रयं तथा। चित्रलेप्यादिकं कर्म दूरतः परिवर्जयेत् ॥२७४ शोधनीयन्त्रशस्त्राग्निमुशलोदूखलार्पणम् । न क्रियेत तिलादीनां संधयः सत्त्वशालिनाम् ।।२७५ लाक्षामनःशिलानीलोशणलाङ्गलधातुकोः । हरितालं विषं चापि विक्रोणते न शुद्धघोः ॥२७६ वापीकूपतडागादिशोषणं भूमिकर्षणम् । नित्यं वनस्पतेर्बाधां धर्मार्थ नैव पोषयेत् ॥२७७ -एवमन्येऽपि हेयाः। दण्ड है, यह नहीं देना चाहिए ॥२६५।। शत्रुओंको घात करनेका, नगर-विध्वंस करनेका और परस्त्रीगमन करनेका, तथा इसी प्रकारके अन्य विपत्ति-कारक कार्योंको करनेका चिन्तवन करना अपघ्यान नामका अनर्थदण्ड है, इसका दूरसे ही परित्याग करना चाहिए ।।२६६।। विष, उखली, यंत्र, खङ्ग, मूशल, अग्नि आदि हिंसाकारक वस्तुओंको देना हिंसादान नामका अनर्थदण्ड है, करुणामें तत्पर लोगोंको यह हिंसादान नहीं देना चाहिए ॥२६७|| रागके बढ़ानेके कारणभूत और अज्ञानके बढ़ानेवाले खोटे शास्त्रोंका सुनना-सुनाना, बांचना आदि दुःश्रुति नामका अनर्थदण्ड है। बुद्धिमान् श्रावक इसका त्याग करे ॥२६८। प्रयोजनके विना वृक्षोंका मोड़ना, भूमिका खोदना, जलका सींचना, फल और फूलोंका चुनना-तोड़ना यह प्रमाद-युक्त आचरण रूप अनर्थदण्ड भी छोड़ना चाहिए ।।२६९।। मयूर, कुक्कुट, मार्जार, मैना-तोता, कुत्ता आदि प्राणिघात करनेवाले पशु-पक्षियोंको और कबूतरोंको भी नहीं पालना चाहिए ।।२७०॥ मुक्तिकी इच्छा करनेवाले श्रावकोंको अंगार (कोयला) बनवाना, भाड़ भूजना, लोहारका काम करना, सुनार आदिका काम करना और इंटोंका पकाना आदि हिंसा-प्रचुर कार्य भी छोड़ना चाहिए ॥२७१|| धन लाभके लिए घोड़े, मेसे, बैल और गधेपर भार लादकर आजीविका करना, नख, हड्डी और चमड़ा बेचना आदि पापरूप व्यापार भी श्रावकको नहीं करना चाहिए ॥२७२।। नवनीत, वसा (चर्वी), मद्य, मधु आदिका बेचना और द्विपद (दासी-दास और पक्षी आदि) और चतुष्पद (गाय-बैल आदि) का बेचना भी कभी हितके लिए नहीं माना गया है ।।२७३॥ गाड़ी-रथ आदिका जोतना, उनको बनवाना, बेचना तथा चित्र लेप आदि कार्य दूरसे ही छोड़ना चाहिए ॥२७४|| शोधिनी-प्रमार्जिनी, यंत्र, शस्त्र, अग्नि, मूशल, उखली, खरल आदिका अर्पण न करे और जीववाले तिल-सरसों आदि धान्योंका संग्रह भी नहीं करना चाहिए ।।२७५।। लाख, मैंनसिल, नील, सन, लांगल (एक जातिका पुष्प), धातुकी (धव-पुष्प), हरिताल, ओर विष भी शुद्ध बुद्धिवाले श्रावकको नहीं बेचना चाहिए २७६|| बावड़ी, कुंआ, तालाब, आदिका सुखाना, भूमिको जोतना और धर्मके लिए वनस्पतिको नित्य बाधा पहुंचाना अर्थात् पूजनादिके लिए वृक्षों से फल-फूल तोड़ना रूप कार्य भी नहीं करना चाहिए ॥२७७॥ शरीरपर गर्म सलाईसे दागना नाक छेदना, अण्डकोष फोड़ना, पैर तोड़ना, कान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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