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________________ श्रावकाचार-सारोबार ३५७ क्षेत्रस्य वास्तुनो दासीदासयोहेमरूपयोः । संख्याव्यतिक्रमो ज्ञेयः कुप्यस्य धनधान्ययोः ॥२५६ उक्तच परिधय इव नगराणि व्रतानि किल पालयन्ति शीलानि । व्रतपालनाय तस्माच्छोलान्यपि पालनीयानि ॥२५७ कृता यत्र समस्तासु दिक्षु सीमा न लध्यते । दिग्विरतिरिति विज्ञेयं प्रथमं तद्-गुणवतम् ॥२५८ क्षितिधरजलनिधितटिनीयोजनजनपदसरांसि मर्यादाः । दिग्भागानामाहुः प्रतिसंहारे प्रसिद्धानि॥२५९ स्थावरेतरसत्त्वानां विमर्दननिवर्तनात् । महावतफलं सूते गृहिणां व्रतमप्यदः ॥२६० जगद्ग्रसनदक्षस्य प्रसर्पल्लोभराक्षसः । विनाशो विहितस्तेन येन दिग्विरतिवृता ॥२६१ ऊवधिस्तात्तिर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्रवृद्धिरत्याक्षाः । स्मृत्यन्तर्धानं वैर्गदिताः पञ्चेति दिग्विरतेः ॥२६२ अनर्थदण्डवितिमाहत्यागं सपापयोगानामपार्थानां निरन्तरम् । वनर्थदण्डविरतिव्रतमाहुमुनीश्वराः ॥२६३ पापोपदेशोऽपध्यानं हिंसादानं च दुःश्रुतिः । प्रमादाचरणं पञ्च तदाः कोत्तिता बुधैः ॥२६४ तुरङ्गान् षण्ढय क्षेत्रं कृषिवाणिज्यमाचर । सेवस्य नृपतीन् पापोपदेशोऽयं न दीयते ॥२६५ पुरुषको जो अनुपम सुख इस लोकमें प्राप्त होता है, वह सन्तोषसे रहित न इन्द्रके संभव है, न वासुदेवके और न चक्रवर्तीके ही संभव है ।।२५५।। क्षेत्र-वास्तुकी, दासी-दासको, सोना-चाँदीकी, धन-धान्यकी और कूय-भाण्डकी संख्याका उल्लंघन करना ये पाँच परिग्रहपरिमाणव्रतके चार हैं ।।२५६॥ ____ अब दिग्वत नामक प्रथम गुणवतको कहते हैं। कहा भी है-जिस प्रकार कोट-खाई नगरको रक्षा करते हैं, उसी प्रकार शीलवत अणुव्रतों की रक्षा करते हैं। अतः ग्रहण किये गये अहिंसादि व्रतोंकी रक्षा करनेके लिए गुणवत और शिक्षाव्रत रूप सात शीलोंको भी पालन करना चाहिए ।।२५७।। जिस व्रतमें समस्त दशों दिशाओंको दी गई सोमाका उल्लंघन नहीं किया जाता है, वह दिग्विरति नामका प्रथम गुणव्रत जानना चाहिए ॥२५८।। दशों दिग्विभागोंके प्रतिसंहारमें प्रसिद्ध पर्वत, समुद्र, नदी, योजन, जनपद और सरोवरको मर्यादा कहा है ॥२५९।। यह दिग्विरतिव्रत मर्यादासे बाहिरके क्षेत्रमें स्थावर और त्रस जीवोंके घातको निवृत्तिसे श्रावकोंके महाव्रतोंका फल देता है ।।२६०॥ जिस पुरुषने दिग्विरतिरूप व्रतको धारण कर लिया. उसने जगत्के ग्रसनेमें दक्ष इस प्रसारको प्राप्त होनेवाले लोभरूपी राक्षसका विनाश कर दिया ॥२६१।। ऊर्ध्वदिशाव्यतिक्रम, अधोदिशाव्यतिक्रम, तिर्यग्दिशाव्यतिक्रम, क्षेत्रवृद्धि और स्मृत्यन्तर्धान ये पांच दिग्विरतिव्रतके अतोचार कहे गये हैं ॥२६२।। अब अनर्थदण्डविरति नामक दूसरे गुणवतको कहते हैं-निरर्थक पाप-योगवाले कार्योंके त्यागको मुनीश्वर लोग अनर्थदण्डविरतिव्रत कहते हैं ।।२६३॥ पापोपदेश, अपध्यान, हिंसादान, दुःश्रुति और प्रमादयुक्त आचरण ये पांच भेद ज्ञानियोंके अनर्थदण्डोंके कहे हैं ।।२६४।। घोड़ों बैलों आदिको षण्ढ करो अर्थात् बधिया बनाओ, खेत जोतो, व्यापार करो, और राजाओंकी सेवा करो, इस प्रकारका उपदेश देना यह पापोपदेश नामका अनर्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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