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________________ श्रावकाचार-संग्रह पाथोनिधिविधिवशात्सरिदम्बुपूरैरभ्येति तृप्तिमिह काष्ठचयैश्च वह्निः। न क्वापि तप्यति जनो धनधान्यरत्नस्वर्णादिभिः परमलोभवशंवदोऽयम् ॥२४८ जनो घनधनार्जने वितततृष्णया वञ्चितः करोति तममात्मनो द्रविणलालितोऽपि स्फुटम् । चलज्जलभृतोऽप्ययं निजसमृद्धये काङ्क्षति क्षपाकरमहोदयं प्रतिदिनं यथाम्भोनिधिः ॥२४९ पाषाणे स्फुरदरः शिशिरता वह्रो परासी क्वचिच्चैतन्यं तपने तमःपरिभवस्तापस्तमीनायके । स्यान्न क्वापि परिग्रहग्रहपरिग्रस्ते प्रशस्तोल्लसद्बोधप्रोद्धतमानसेऽपि मनुजे व्यक्तं विमुक्तेः सुखम्।।२५० परिग्रहवतामयं प्रतिदिनं महारम्भको भयप्रचयदायिनी गुरुतरा च हिंसा ततः । तयाऽनुदुरितं ततो भवति दुर्गतिस्तरा ततो घनपरिग्रहे कुरुत माऽऽदरं भो नराः ॥२५१ परिग्रहमिमं ज्ञात्वा कर्मबन्धनिबन्धनम् । ततो गृहरतः कुर्यादल्पमल्पं परिग्रहम् ॥२५२ नरे परिग्रहग्रस्ते न सन्तोषो मनागपि । वने दावसमालोढे कुतस्त्यस्तरुसंभवः ॥२५३ अर्जने च विलयेऽभिरक्षणे जन्मिनामिह परिग्रहः स्फुटम् । दुखदः पुनरमुत्र दुर्गतेहेतुरेष परिमुच्यते ततः ॥२५४ सन्तोषपीयूषरसावसिक्तचित्तस्य पुंसोऽत्र यदस्ति सौख्यम् । सन्तोषहीनस्य न कौशिकस्य न वासुदेवस्य न चक्रिणस्तत् ॥२५५ राजके मूलभागके समान स्थूल दूषण सहस्रों होते हैं ॥२४७।। इस लोकमें विधिके वशसे चाहेसमुद्र नदियोंके जल-पूरोंसे तृप्तिको प्राप्त हो जाय, और भारी काष्ठ-समुदायसे अग्नि तृप्त हो जाय, परन्तु धन-धान्य, रत्न-सुवर्णादिमें परमलोभके वशीभूत हुआ यह मनुष्य कभी तृप्त नहीं होता है ।।२४८॥ धनसे भरा हुआ भी यह मनुष्य प्रचुर धनके उपार्जनकी निरन्तर बढ़ती हुई तष्णासे अपने आपको उस प्रकार भलीभांतिसे व्याप्त करता है, जिसप्रकार कि जलसे लहराता हुआ भी यह समुद्र प्रतिदिन चन्द्रमाकी कला-वृद्धिरूप महान् उदयको चाहता है। भावार्थ-जैसे जलसे भरा होनेपर भी शुक्लपक्षमें एक-एक कलासे बढ़ते हुए चन्द्रके उदयसे उत्तरोत्तर समुद्रके जलका पूर बढ़ता रहता है, उसी प्रकार विपुल धनवाले मनुष्यकी धन-तृष्णा भी उत्तरोत्तर बढ़ती ही रहती है, वह कभी शान्त नहीं होती है ॥२४९॥ ग्रन्थकार कहते हैं कि पत्थरके ऊपर चाहे अंकुर उग आये, अग्निमें शीतलता आ जाये, गत-प्राण मृत शरीरमें चैतन्य प्रस्फुरित हो जाय, सूर्यमें अन्धकारके द्वारा पराभव प्राप्त हो जाय, चन्द्रमें आतप प्रकट हो जाय, परन्तु परिग्रहरूप ग्रहसे ग्रस्त मनुष्यमें प्रशस्त उल्लास-युक्त ज्ञानसे प्रकाशमान हृदयके होनेपर भी मुक्तिका निराकुलतारूप सुख कभी भी व्यक्त नहीं हो सकता ॥२५०॥ परिग्रहवाले मनुष्योंके प्रतिदिन महा आरम्भ होता है, उससे प्रचुर भयको देनेवाली गुरुतर महा हिंसा होती है, उससे प्रतिक्षण महापापका संचय होता है और उससे दुस्तर दुर्गतिकी प्राप्ति होती है, इसलिए हे मनुष्यो, तुम लोग अतिपरिग्रहके संचयमें आदर मत करो ॥२५॥ इस परिग्रहको उक्त प्रकारसे कर्म-बन्धका कारण जानकर गृहस्थ उत्तरोत्तर अल्प अल्प परिग्रह करे। भावार्थ-प्रतिदिन परिग्रह कम करे ॥२५२।। परिग्रहसे ग्रस्त मनुष्यमें रंचमात्र भी सन्तोष नहीं हो सकता। दावानलसे व्याप्त वनमें वृक्षको उत्पत्ति कैसे संभव है ॥२५३।। यह परिग्रह इस लोकमें तो मनुष्योंको उपार्जनके समय दुःख देता है, फिर संरक्षण करने में दुःख देता है, और विनाश हो जानेपर तो महान् दुःख देता ही है । तथा परलोकमें यह दुर्गतिका कारण है, इसलिए ज्ञानीजन इसका त्याग करते हैं ।।२५४॥ सन्तोषरूपी अमृतरससे सिंचित चित्तवाले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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