SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 386
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रावकाचार-सारोवार ३५३ कलत्रे स्वायत्ते सकलगुणपात्रेऽपि रमते परेषां दारेषु प्रकृतिचपलो नीचमनुजः । ननु द्राक्षावृक्षे विपुलफलशालिन्यपि रति विधत्ते काकोले विरसपिचुमन्दे कटुफल।।२२० उड्डीनं गुणपक्षिभिः कलुषितं शोलाम्बुना कम्पितं तैस्तैः सद्-तपादपैविगलितं सत्कीतिवल्ल्या क्षणात् । ज्ञानाम्जेन निमीलितं निपतितं चात्यंधेयंग्छदैः स्तन्वन्त्याञ्जनहृहने परवशा भास्वत्करिण्यां स्थितिम् ॥२२१ पररामाश्चिते चित्ते न धर्मस्थितिरङ्गिनाम् । हिमानीकलिते देशे पद्योत्पत्तिः कुतस्तनी ॥२२२ परनारी नरीनति चित्ते येषामहनिशम् । तत्समीपे सरीसति न क्वापि कमलाऽमला ॥२२३ पररमणीसंसक्तं चित्तं स्येमानमश्नुते नैव । कपिकच्छव्यालीः कियत्कपिनिश्चलो भवति ॥२२४ सस्मेरस्मरमन्दिरं परिलसल्लावण्यलीलाञ्चितं ध्यायद्भिः प्रतिवासरं परवधूरूपं मनुष्याधमैः । ये सङ्कल्पविकल्पजालजटिलैः पापाणवः सञ्चिताः मूश्चेिदभुवने न मान्ति नियतं ते श्वभ्रसौषध्वजः ॥२२५ चञ्चच्चञ्चललोचनाञ्चलपराभूता त्रिलोकीमनो भास्वद्भरि विवेकदीपकशिखायोषाः परेषां जनाः। घ्यायन्तीह यथा तथा यदि जिनश्रोपादपद्वयं मोक्षस्तहि करस्थ एव परमस्तेषां सुखस्यापदम्।।२२६ पुरुष क्या दूसरेके जूठे निन्द्य अन्नको खाता है ? कभी नहीं खाता ॥२१९॥ सकल गुणोंकी धारक स्वाधीन भी अपनी स्त्रीके होते हुए प्रकृतिसे चपल नीच पुरुष दूसरोंकी स्त्रियोंमें रमता है । विपुल फलवाले द्राक्षाके होनेपर भी कागला विरस कटु नीमके फल (निम्बोड़ी) में रमता है ॥२२०॥ गुणरूपी पक्षियोंसे उड़ाये जाते हुए, शीलरूपी जलसे कलुषित होते हुए, उन-उन सद्-व्रतरूपी वृक्षोंसे कम्पित होते हुए, सत्कीतिरूपी वल्लीसे क्षणभरमें विगलित होते हुए, ज्ञानरूप नेत्रसे-निमीलित होते हुए, चातुर्य और धैर्यरूप पत्रोंसे पतित होते हुए, परवश हाथी अंजन गिरि रूपी मनोवनमें भासुरायमान नकली हथिनीमें स्थिति करते हैं। अर्थात् जैसे कामोन्मत्त हाथी अंजनवनके स्वतंत्र विहारको छोड़कर और अपने गणोंसे च्युत होकर नकली हथिनीके सौन्दर्यपर मुग्ध होकर खाड़े में पड़कर पराधीन हो पकड़ा जाता है, उसी प्रकार कामके परवश हुआ मनुष्य भी अपने व्रत सर्व आदिमे भ्रष्ट होता हुआ पराधीन होकर अनेक दुःखोंको भोगता है ॥२२१॥ __ पर रामामें आसक्त पुरुषोंके चित्तमें धर्मको स्थिति नहीं होती, हिमानी (बर्फ) से व्याप्त देशमें कमलोंकी उत्पत्ति कैसे संभव है ॥२२२।। जिन पुरुषोंके चित्तमें दिन-रात पर नारी नाचती रहती है, उनके समीपमें निर्मल लक्ष्मी कभी भी नहीं आती है ॥२२३॥ पर-रमणीमें संलग्न चित्त कभी भी स्थिरताको प्राप्त नहीं होता है। कपिकच्छ (केवाचकी फली) से व्याप्त वानर क्या निश्चल रह सकता है ? कभी नहीं ॥२२४॥ विकसित कामका मन्दिर, शोभायुक्त सौन्दर्यमयी लोलासे युक्त पर स्त्रियोंके रूपका प्रतिदिन ध्यान करनेवाले और संकल्प-विकल्प-जालसे व्याप्त अधम पुरुषोंके द्वारा जो पाप कर्मोके परमाणु संचित किये जाते हैं, वे यदि मूर्त (स्थूल) रूप धारण करें तो इस भुवनमें नहीं समावें । निश्चयसे वे पाप-परमाणु नरक रूप महलके ध्वजस्वरूप हैं ।।२२५।। जैसे इस लोकमें मनुष्य विकसित चंचल लोचनोंके अंचल (कटाक्ष-) से तीन लोकके प्राणियोंके मनको पराभूत करनेवाली प्रकाशमान, भारी विवेक रूपी पतंगोंको दीपकी शिखाके समान जलानेवाली दूसरों की स्त्रियोंका ध्यान (एकाग्र होकर चिन्तवन) करते हैं, उस प्रकार यदि वे श्री जिनेन्द्रदेवके चरण. कमल-युगलका ध्यान करें तो परम सुखका स्थान वह मोक्ष उनके हाथ में स्थित हो समझना चाहिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy