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श्रावकाचार-संग्रह
शोचिः केशशिखेव दाहजननी नीचप्रियेवापगा प्रोद्यद्धमततीव कालिमचिता शम्पेव भीतिप्रदा । सन्ध्ये व क्षणरागिणी हृतजगत्प्राणा भुजङ्गीव साऽऽयँ कार्यविचारचारुमतिभिस्त्याज्या परस्त्री सदा ॥ संज्ञानानामपि तनुभृतां मानसे मानमत्ता बध्यन्तीयं वसतिमसती क्वापि नारी परेषाम् । तांस्तानुद्वासयति नियतं सद्गुणाश्चन्द्रगौरान् रम्यग्रामानिव नरपतेर्दुर्णयस्य प्रवृत्तिः ॥ २२८ न कालकूटः शितिकण्ठकण्ठे किन्त्वस्ति नेत्रेषु विलासितीनाम् । तैस्तैः कटाक्षैः कथमन्यथाऽमूर्विमोहयेयुस्त्रिजगत्समस्तम् ॥ २२२ स्वेदो भ्रान्तिः क्षमो म्लानिः मूर्च्छा कम्पो बलक्षयः । मैथुनोत्था भवत्यन्ते व्याधयोऽप्याधयस्तथा ।। २३० योनिरन्ध्रोद्भवाः सूक्ष्मा लिङ्गसङ्घट्टतः क्षणात् । म्रियन्ते जन्तवो यत्र मैथुनं तत्परित्यजेत् ॥२३१ उक्तं च
हिस्यन्ते तिलनाल्यां तप्तायसि विनिहते तिला यद्वत् । बहवो जीवा योनौ हिंस्यन्ते मैथुने तद्वत् ॥ २३२ मैथुनेन स्मराग्निर्यो विध्यापयितुमिच्छति । सर्पिषा स ज्वरं मूढः प्रौढं प्रतिचिकीर्षति ॥२३३ वरमालिङ्गिता वह्नितप्तायः शालभञ्जिकाः । न पुनः कामिनी क्वापि कामान्नरकपद्धतिः ॥२३४ उदारान्यादिराङ्गारान् सेवमानः क्वचिन्नरः । सुखी स्थान्न पुनर्नारीजघनद्वारसेवनात् ॥२३५
॥२२६॥ कार्य- अकार्यका विचार करनेवाले सुन्दर बुद्धिशाली आर्य पुरुषोंके द्वारा ऐसी परस्त्री सदा त्यागने योग्य है जो कि शोकरूप केश - शिखावाली अग्निके समान दाहको उत्पन्न करती है, नदीके समान नीच - प्रिय (नीचेको बहनेवाली) है, उत्तरोत्तर उठती हुई धूमपंक्तिके समान कालिमासे व्याप्त है, बिजलीकी गर्जनाके समान भयको देनेवाली है, सन्ध्याके समान कुछ क्षणोंकी लालिमावाली है और सर्पिणीके समान जगत्के प्राण हरण करनेवाली है ॥२२७॥ अन्य पुरुषोंकी रूपके गर्वसे गर्विणी यह असती नारी कहीं सम्यग्ज्ञानवाले भी मनुष्योंके मन में बसति (निवास) करती हुई उनके चन्द्रमा समान उज्ज्वल उन-उन सद्गुणोंको नियमसे उखाड़ फेंकती है । जैसे कि दुर्नीतिवाले राजाकी प्रवृत्ति सुन्दर ग्रामोंको उखाड़ कर नष्ट-भ्रष्ट कर देती है || २२८|| नीलकण्ठ (महादेव) के कण्ठ में कालकूट विष नहीं है, किन्तु विलासिनी स्त्रियोंके नेत्रों में है । यदि ऐसा न होता, तो वे अपने उन उन कटाक्षोंके द्वारा इस समस्त त्रिभुवनको कैसे मोहित कर लेतीं ? ऐसा मैं मानता हूँ ||२२९|| मैथुन सेवन करने से प्रस्वेद, भ्रान्ति, श्रम, म्लानता, मूर्च्छा, कम्प, बलक्षय, तथा इसी प्रकारकी अन्य अनेक अधियाँ और व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं ||२३०|| जिस मैथुनसेवनके समय स्त्रीकी योनिमें उत्पन्न होनेवाले असंख्य सूक्ष्म जीव पुरुषके लिंग-संघर्षसे क्षण भरमें मर जाते हैं, उस मैथुनका परित्याग कर देना चाहिए ||२३१||
कहा भी है- जिस प्रकार तिलोंकी नाली में तपी हुई लोह- शलाकाके डालने से तिल जलभुन जाते हैं, उसी प्रकार मैथुनके समय स्त्रीकी योनि में पुरुष लिंग के प्रवेश करनेपर योनिमें उत्पन्न होनेवाले बहुतसे जीव मारे जाते हैं ||२३२||
जो मूढ मनुष्य मैथुन सेवन से कामाग्निको शान्त करनेकी इच्छा करता है, वह ज्वरयुक्त पुरुषको घी पिलाकर नीरोग बलवान् करनेकी इच्छा करता है || २३३|| अग्निसे तपायी गयी लोकी पुतलीका आलिंगन करना अच्छा है, किन्तु कामिनीका आलिंगन करना कभी भी अच्छा नहीं है, क्योंकि कामिनी नरककी पद्धति (सीढ़ी) है || २३४ ॥ प्रज्वलित खैरके बड़े-बड़े अंगारोंका सेवन करनेवाला मनुष्य कदाचित् कहीं सुखी हो सकता है, किन्तु स्त्रीके जघन-द्वारके सेवनसे
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