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________________ ३५२ श्रावकाचार-संग्रह फलं चौर्यद्रुमस्येह वघच्छेदनताडनम् । अमुत्र च विचित्रोरुनरकोत्सङ्गसङ्गतिः ॥२१० नियुक्तोऽपि महैश्वर्ये राज्ञा विक्रमशालिना । श्रीभूतिश्रौर्यतोऽनन्तभवभ्रमणमासदत् ॥२११ लोकेऽप्यणुगुणकलितस्तृणमिव गणयति घनं परेषां यः । जननी तस्य कृतार्था सफलं च जनुः सुखं विपुलम् ॥ २१२ यो लोष्ठवत्पश्यति धर्मकमंप्रवीणबुद्धिर्द्रविणं परेषाम् । कल्याणलक्ष्मीः सुभगं भविष्णुमूर्ति तमामोदयति प्रमोदात् ॥ २१३ राजविरुद्धातिक्रमचौरनियोगौ तदाहृतादानम् । प्रतिरूपकृतिर्हीनाधिकमानं पञ्च चास्तेये ॥ २१४ अथ ब्रह्मचर्यमाह मैथुनं स्मरोद्रेकात्तदब्रह्मतिदुःखदम् । तदभावाद व्रतं सम्यग् ब्रह्मचर्याख्यमीरितम् ॥ २१५ कुरूपत्वं तथा लिङ्गच्छेदं षण्ढत्वमुत्तमः । दृष्ट्वाऽब्रह्मफलं मुक्त्वाऽन्यस्त्रों स्वस्त्रीरतो भवेत् ॥ २१६ सत्त्वाधिकस्त्यक्तुमलं परेषां वधूविबुद्धाम्बुजपत्रनेत्राः । पयोनिधेः पातुमपः समस्ताः कुम्भोद्भवो हि प्रभुरद्भुताभः ॥२१७ लावण्यवेलामबलां परेषां विलोक्य सन्तो नतमस्तकाग्राः । प्रयान्ति मार्गे वृषभा इवोद्यद्धाराधरासारविभिन्नगात्राः ॥२१८ मनसिजशर पीडाक्लान्तचित्तोऽपि योषामभिलषति परेषां शुद्धबुद्धिर्न साधुः । frfasतरबुभुक्षाक्षामगात्रोऽभुङ्क्ते किमुत विततमानो निन्द्यमुच्छिष्टमन्नम् ॥ २१९ समूह क्या सर्व ओरसे सुख पाता है ? कभी नहीं || २०९ || चौर्यरूप वृक्षके फल इस लोकमें वघ, बन्धन, छेदन और ताड़न हैं, तथा परलोकमें विविध प्रकार महादुःखोंसे भरे हुए नरकको गोदकी संगति है || २१० | देखो - महाविक्रमशाली राजाके द्वारा महान् ऐश्वर्यवाले पुरोहितके पदपर नियुक्त भी श्रीभूति चोरीके दोषसे अनन्त संसारके परिभ्रमणको प्राप्त हुआ || २११॥ अल्पगुणोंसे युक्त भी जो पुरुष इस लोकमें दूसरोंके धन को तृणके समान मिलता है, उसे पैदा करनेवाली माता कृतार्थ है, उसका जन्म भी सफल है और वह विपुल सुखको पाता है || २१२ || धर्मकार्य में प्रवीण बुद्धिवाला जो पुरुष दूसरोंके घनको लोष्ठके समान देखता है उस भव्य मूर्ति सौभाग्यशाली पुरुषको कल्याणलक्ष्मी अपने प्रमोदसे आनन्दित करती है ॥ २१३॥ विरुद्ध राज्यातिक्रम, चौर प्रयोग, चौराहृतादान, प्रतिरूपक व्यवहार और हीनाधिक मानोन्मान ये पाँच अस्तेयाणुव्रत के अतीचार हैं || २१४ ॥ अब ब्रह्मचर्य व्रत कहते हैं - कामवासनाको प्रबलतासे जो मैथुनसेवन किया जाता है, उसे ब्रह्म कहते हैं, वह अति दुःखदायी है । उसके अभावसे अर्थात मैथुन सेवन नहीं करने से ब्रह्मचर्य नामका सम्यक् व्रत कहा गया है || २१५ || परस्त्री सेवनका फल कुरूप होना, लिंगच्छेद किया जाना और नपुंसकपना है, ऐसा देखकर उत्तम पुरुषको चाहिए कि वह परस्त्रीका त्याग करके स्व स्त्रीमें ही सन्तोष - रत रहे || २१६|| अधिक बलशाली पुरुष ही दूसरोंकी विकसित कमलपत्रके समान नेत्रवाली स्त्रियोंको छोड़ने में समर्थ होता है । देखो - अद्भुत पराक्रमवाले कुम्भोद्भव - अगस्त्य ऋषि ही समुद्रके समस्त जलको पीने के लिए समर्थ हैं । ( अन्य नहीं) || २१७|| लावण्यकी वेलास्वरूप अति सौन्दर्यवाली भी दूसरोंकी स्त्रियोंको देखकर मार्ग में सन्त पुरुष मस्तक के अग्र भागको नीचे करके जाते हैं । किन्तु उदृण्ड पुरुष प्रबल धारासे बरसते हुए मेधके जलसे भींजे बैलोंके समान उछलते हुए जाते हैं ||२१८|| शुद्ध बुद्धिवाला सत्पुरुष कामदेवके वाणकी पीड़ासे आक्रान्त चित्त होनेपर भी दूसरोंकी स्त्रियोंकी अभिलाषा नहीं करता है । अत्यधिक भूख से दुर्बल शरीर हुआ भी स्वाभिमानी 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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