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________________ श्रावकाचार-सारोबार ३५१ एनःसेनायुतस्तेनः शिरःशेषोऽपि राहुवत् । कलावतामपि व्यक्तं सुवर्ण हरते कुधीः ॥२०२ चौरस्य चित्ते कलुषप्रसक्ते स्थिति लभन्ते न लसद्वतानि । तिष्ठन्ति तप्तायसि शुम्भदन्तः कणाः कियत्संपतिताः सदाभाः ॥२०३ स्तेनस्य सङ्गतिनं महतां स्याद्विपत्तये । राहुणा सङ्गतः किं न चन्द्रो दुःखी पदे पदे ॥२०४ चुराशीलं जनं सर्वे पोडयन्ति न संशयः । अपथ्यसेविनं व्याधिमन्तं रोगगणा इव ॥२०५ केचित्पञ्चमुखं खरायतनखं सपं सद परे भाषन्ते विषमं विषं हतवहं खेदावहं केचन । प्राणिप्राणगणापहारकमिह ब्रूमो वयं निश्चयादेकं तस्करमन्यवित्तपललग्रासोल्लसन्मानसम् ॥२०६ स्वापतेयममेयं यः परकीयं जिघृक्षति । व्याघ्रीव तं गतिः श्वाभ्री पोडयत्यविलम्बितम् ॥२०७ शुद्धं दयादिकमपि व्रतमङ्गभाजां चौर्यप्रसक्तमनसां न विशुद्धये स्यात् । कि कर्दमस्य सततं मलिनात्मकस्य कतुं प्रसादनमलं कतकः क्षमेत ॥२०८ स्वच्छत्वमभ्येति न पश्यतोहरः स्फुरद्धयोद्धान्तमना जने क्वचित् । किं वा वने दुःसहसिंहसङ्कले गणो मृगाणां लभतेऽभितः सुखम् ॥२०९ कालमें सुखको पा सकता है, किन्तु अदत्तादानके दुर्ध्यानसे व्याप्त आत्मा किसी भी कालमें कहीं भी सुख नहीं पा सकता है ।।२०१॥ पापोंको सेनासे युक्त कुबुद्धिवाला चोर शिरमात्र ही जिसका शेष है, ऐसे राहुके समान कलावालोंके भी सुवर्णको व्यवतरूपसे हरण करता है । भावार्थ-जैसे लोक-प्रसिद्धिके अनुसार केवल शिरवाला भी राहु पूर्णकलाओंवाले पूर्णमासीके चन्द्रमाके सु (उत्तम) वर्ण (कान्ति) को हरण करता है, इसी प्रकार पापोंका पुंज यह कुबुद्धि चोर बड़े-बड़े कलाकुशल चतुर जनोंके सुवर्ण (सोने) का हरण करता है। अतः चोर राहुके समान है ॥२०२॥ कलुषतासे भरे हुए चोरके चित्तमें उत्तम व्रत नहीं ठहरते हैं। जैसे कि तपे लोहेके ऊपर उत्तम आभावाले चमकते हुए जल-कण कितने देर ठहरते हैं ? अर्थात् गिरते ही भस्म हो जाते हैं ॥२०३।। चोरको संगति नियमसे महापुरुषोंको भी विपत्तिके लिए होती है। देखो-राहु की संगतिसे चन्द्र क्या पद-पदपर दुःखी नहीं होता है ? अर्थात् दुःखी होता ही है ॥२०४॥ चोरी करनेवाले पुरुषको सभी लोग पीड़ा पहुँचाते हैं, जैसे कि अपथ्यसेवी व्याधिवाले मनुष्यको रोगोंका समूह पीड़ा पहुँचाता रहता है ।।२०५।। कितने ही लोग तीक्ष्ण नखवाले पंचानन-सिंहको प्राणियोंके प्राण-समूहका अपहारक कहते हैं, कितने ही लोग विषकी बहुलतासे सदर्प (फुफकार मारते हुए),सपके विषम विषको प्राणियोंके प्राणोंका विनाशक कहते हैं, कितने ही लोग ज्वालासे लोगोंको जलाने वाली अग्निको खेद-कारक कहते हैं। किन्तु हम तो निश्चयसे अन्य पुरुषोंके धनरूपी प्राणभूत मांसके खाने में उल्लास युक्त चित्त वाले एकमात्र तस्करको ही प्राणियोंके प्राणोंका अपहारक कहते हैं ॥२०६॥ जो पुरुष दुसरेके अपरिमित धनको ग्रहण करनेकी इच्छा करता है, उसे व्याघ्रोके समान नरकगति विना विलम्बके पीड़ित करती है, अर्थात् चोर शीघ्र नरकके दुःख भोगता है ॥२०७।। चोरीमें आसक्त चित्तवाले मनुष्योंके शुद्ध दया आदि व्रत भी विशुद्धिके लिए नहीं होते हैं। निरन्तर मलिन स्वरूप रहनेवाली कीचड़को निर्मल करनेके लिए कतक (निर्मली फल या फिटकरी) समर्थ है ? कभी नहीं ॥२०८॥ जिसका मन निरन्तर स्फुरायमान भयसे उद्-भ्रान्त रहता है, ऐसा चोर कहीं किसी जनमें स्वच्छताको प्राप्त होता है ? कभी नहीं। दुःसह सिंहोंसे क्याप्त वनमें मुगोंका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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