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________________ ३५० श्रावकाचार-संग्रह उक्तं चामृतचन्द्रसूरिभिःयदिदं प्रमादयोगादसदभिधानं विधीयते किमपि । तदन्तमपि विज्ञेयं तद्भदाः सन्ति चत्वारः ॥१८९ स्वक्षेत्रकालभावैः सदपि हि यस्मिन्निषिध्यते वस्तु । तत्प्रथममसत्यं स्यान्नास्ति यथा देवदत्तोऽत्र॥१९० असवपि हि वस्तुरूपं यत्र परक्षेत्रकालभावैस्तैः। उद्भाव्यते द्वितीयं तदनृतमस्मिन् यथास्ति घटः॥१९१ वस्तु सदपि स्वरूपात्पररूपेणाभिधीयते यस्मिन् । अनृतमिदं तृतीयं विज्ञेयं गौरिति यथाश्वः ॥१९२ हितमवद्यसंयुतमप्रियमपि भवति वचनरूपं यत् । सामान्येन त्रेधा मतमिदमनृतं तुरीयं तु॥१९३ पैशुन्यहासगर्भ कर्कशमसमंजसं प्रलपितं च । अन्यदपि यदुत्सूत्र तत्सवं गहितं गदितम् ॥१९४ छेवनभेदनमारणकर्षणवाणिज्यचौर्यवचनादि । तत्सावा यस्मात् प्राणिवधाद्याः प्रवर्तन्ते ॥१९५ अरतिकरं भीतिकरं खेदकरं वैरशोककलहकरम् । यदपरमपि तापकरं परस्य तत्सर्वमप्रियं ज्ञेयम्॥१९६ स्तेयनिवृत्तिव्रतमाहविस्मृतं पतितं नष्टं स्थापितं पथि कानने । परस्वं गृह्यते यन्न तत्ताीयमणुव्रतम् ॥१९७ दास्यप्रेष्यत्वदौर्भाग्यदरिद्रादिफलं सुधीः । ज्ञात्वा चौर्य विचारको विमुञ्चेन्मुक्तिलालसः ॥१९८ धैर्येण चलितं धर्मबुद्धया च प्रपलायितम् । विलीनं परलोकेन स्तेनता यदि मानसे ॥१९९ कालकूटच्छटाक्षिप्तजगता कृष्णभोगिना । संसजन्ति जनाः कापि तस्करेण न जातुचित् ॥२०० सशल्योऽपि जनः क्वापि काले सौख्यं समश्नुते । अदत्तावानानसाधितात्मा तु न क्वचित् ॥२०१ श्री अमृतचन्द्रसूरिने कहा है-प्रमादके योगसे जो कुछ भी असत् कथन किया जाता है, वह सब अनृत (असत्य) जानना चाहिए। उसके चार भेद हैं ॥१८९।। जिस वचनमें स्वद्रव्य क्षेत्रकालभावसे विद्यमाम भी वस्तु निषेधित की जाती है, वह प्रथम प्रकारका असत्य है। जैसे कि देवदत्तके होते हुए भी कहना कि 'देवदत्त यहां नहीं है ॥१९०॥ जिस वचनमें पर द्रव्य क्षेत्रकाल भावसे अविद्यमान भी वस्तुस्वरूप प्रकट किया जाता है, वह दूसरे प्रकारका असत्य है। जैसे घड़ेके नहीं होनेपर भी यह कहना कि यहां पर घड़ा है ।।१९१।। जिस वचनमें अपने स्वरूपचतुष्टय से विद्यमान भी वस्तु अन्य स्वरूपसे कही जाती है, वह तीसरे प्रकारका असत्य जानना चाहिए । जैसे बैलको घोड़ा कहना ॥१९२।। चौथे प्रकारका असत्य गहित, सावद्य, और अप्रियरूपमें सामान्यसे तीन प्रकारका माना गया है ॥१९३॥ जो वचन पिशुनता और हास्यसे मिश्रित है, कर्कश है, मिथ्याश्रद्धानरूप है, व्यर्थ प्रलाप-युक्त है, तथा और भी जो इसी प्रकारके सूत्र-प्रतिकूल वचन हैं वे सब गहित वचन कहे गये हैं ॥१९४|| जिन वचनोंसे प्राणिघात आदिकी प्रवृत्ति हो ऐसे छेदन-भेदन, मारण, वर्षण, वाणिज्य और चोरी आदिके वचन सावध कहलाते हैं ।।१९५।। जो वचन अप्रीति-कारक, भय-जनक, खेद-उत्पादक, वैर-वर्धक, शोक और कलह-कारक हैं और इसी प्रकारके अन्य भी जो वचन सन्ताप-कारक हैं, उन सबको अप्रिय वचन जानना चाहिए ॥१९६|| ___अब स्तेयनिवृत्तिव्रत कहते हैं जो विस्मृत, पतित, नष्ट, मार्गमें या वन (भवन आदि किसी भी स्थानपर) स्थापित दूसरेके धनको ग्रहण नहीं करता है, वह तीसरा अचौर्याणुव्रत है ॥१९७।। दासपना, किंकरपना, दुर्भाग्यपना और दरिद्रता आदि चोरीका फल जानकर विचारवान् एवं मुक्तिके अभिलाषी बुद्धिमान् पुरुषको चोरी छोड़ देनी चाहिए ॥१९८॥ यदि किसीके मनमें चोरी करनेका भाव है तो वह धैर्यसे चलित है, धर्मबुद्धिसे पलायमान है और परलोकसे विलीन है ।।१९९।। कालकूट विषकी छटासे जगत्को व्याप्त बरनेवाले काले सांपसे मनुप्य कहीं पर संसक्त रह सकते है । किन्तु तस्करके साथ कभी नहीं रह सकते हैं ।।२००॥ शल्य-युक्त भी मनुष्य किसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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