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________________ श्रावकाचार-सारोबार मौनमेव हितमत्र नराणां भाषणं न परुषाक्षरवाचः । मृत्युरेव हि वरं न पुनस्तज्जीवितं कलितभूरिकलङ्कम् ॥१७९ काननं दवहुताशनदग्धं शाडवलं भवति कालवशेन । प्राणिनां न निचयः पुनरेव क्वापि दुष्टवचनैः परितप्तः ॥१८० सत्त्वसन्ततिरक्षार्थ मनुष्यः करुणाचणः । असत्याधिष्ठितं वाक्यं ब्रवन्नपि न पापभाक् ॥१८१ चन्दनं तुहिनरश्मिरम्बुजं मालती च घनसारसौरभम् । मोदते न हि तथा यथा वचः सत्यसंयुतमचिन्त्यवैभवम् ॥१८२ रिपुरश्मिरुष्णदीधितिरग्निस्तिग्मास्त्रमुद्धरो व्याधिः। न तथा दुनोति पुरुषं यह वितयाक्षरा वाणी ॥१८३ परोपरोधतो ब्रूते योऽसत्यं पापवञ्चितः । वसुराज इवाप्नोति स तूणं नरकावनीम् ॥१८४ इष्टोपदेशं किल शिक्षितोऽपि नासत्यवाचो विरमत्यसाधुः । आकण्ठमप्यन्नसुभोजतः श्वा किमन्नमुच्छिष्टमसौ जहाति ॥१८५ सूनृतं हितमग्राम्यं मितं वारुणयाश्चितम् । सत्त्वोपकारकं वाक्यं वक्तव्यं हितकाडिक्षणा ॥१८६ कूटलेखो रहोऽभ्याख्या तथा मिथ्योपदेशनम् । न्यासापहारसाकारमन्त्रभेदश्च सूनते ॥१८७ तप्तं चारु तपो जपश्च विहितः श्रीमज्जिनार्वा कृता दत्तं दानमलङ्कृतं कुलमलं प्राप्तं फलं जन्मनः । शीलं च प्रतिपालितं कुलमलं तेनापि भस्मीकृतं यस्य स्यात्प्रसरीसरीति वचनं सत्यप्रतिज्ञाञ्चितम१८८ इस लोकमें मौन रखना ही मनुष्योंका हितकारी है। किन्तु कर्कश कठोर वचनका बोलना उचित नहीं है । मृत्यु ही उत्तम है किन्तु असत्य भाषणसे कलंकित जीवन बिताना अच्छा नहीं है ।।१७९।। दावानलसे जला हुआ वन समय पाकर हरी दुर्वासे युक्त हरा-भरा हो जाता है। किन्तु दुष्ट वचनोंसे सन्तप्त प्राणियोंका समूह कभी भी पुनः हरा-भरा नहीं होता है ।।१८०।। प्राणियोंकी सन्ततिकी रक्षाके लिए करुणामें कुशल मनुष्य असत्यसे आश्रित वचनको बोलता हुआ भी पापका भागी नहीं होता ॥१८१॥ चन्दन, तुहिन-रश्मि(चन्द्र), कमल, मालती और कपूरका सौरभ मनुष्यको उस प्रकारसे प्रमुदित नहीं करते हैं जिस प्रकारसे कि अचिन्त्य-वैभववाले सत्य संयुक्त वचन मनुष्यको प्रमुदित करते हैं ।।१८२।। रिपुरश्मि (शत्रुका प्रताप), उष्णदीधिति(सूर्य), अग्नि, तीक्ष्णशस्त्र और प्रबल व्याधि मनुष्यको उसप्रकारसे पीड़ित नहीं करती है जिस प्रकारसे कि असत्य अक्षरवालो वाणी इस लोकमें लोगोंको पीड़ित करतो है ॥१८३।। जो पापसे ठगाया गया पुरुष दूसरेके आग्रहसे असत्य वचन बोलता है, वह वसुराजाके समान शीघ्र ही नरकभूमिको प्राप्त होता है ।।१८४॥ दुर्जन मनुष्य इष्ट उपदेशसे शिक्षित होनेपर भी असत्य वचन बोलनेसे विश्राम नहीं लेता है। उत्तम अन्न खानेसे कण्ठपर्यन्त भरा हुआ भी कुत्ता क्या उच्छिष्ट अन्नको छोड़ता है ? नहीं छोड़ता ॥१८५॥ अपने हितके इच्छुक मनुष्यको सत्य, हितकारक, अग्राम्य (नगरोचित), परिमित, करुणासे युक्त और प्राणियोंके उपकार करनेवाले वचन ही बोलना चाहिए ॥१८६।। कूटलेख लिखना, रहोभ्याख्यान करना, मिथ्या उपदेश देना, न्यासापहार और साकार मंत्रभेद ये पांच सत्याणुव्रतके अतीचार हैं ॥१८७॥ जिस मनुष्यके सत्य प्रतिज्ञा-युक्त वचनसंसारमें प्रसारको प्राप्त होते हैं, समझो कि उसने सुन्दर तप तपा है, जाप जपा है, श्री जिनेन्द्रदेवकी पूजा की है, दान दिया है, कुलको अलंकृत किया है, जन्म लेनेको फलको भर-पूर पाया है, शीलका प्रतिपालन किया है और उसने अपने कुलके कलंकको भी भस्म किया है ॥१८८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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