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________________ ३४८ श्रावकाचार-संग्रह सत्यवतमाह-- लाभालाभभयद्वेषेरसत्यं यत्र नोच्यते। सून्तं तत्प्रशंसन्ति द्वितीयकं व्रतं बुधाः ॥१६९ कुरूपत्वलघीयत्वनिन्द्यत्वाविफलं द्रुतम् । विज्ञाय वितथं तथ्यवादी तत्क्षणतस्त्यजेत् ॥१७० तदसत्याञ्चितं वाक्यं प्रमादादपि नोच्यते । उन्मूल्यन्ते गुणा येन वायुनेव महाद्रुमः ॥१७१ असत्याधिष्ठितं श्लिष्टं विरुद्धं मलसङ्कलम् । ग्राम्यं च निष्ठरं वाक्यं हेयं तस्वविशारदैः ॥१७२ सूनृतं न वचो ब्रूते यः प्राप्य जिनशासनम् । मृषावादी मृतो मूढः कां गति स गमिष्यति ॥१७३ व्यलोकभाषाकलिता दयालता फलं प्रसूते न मनीषितं क्वचित् । जन्वाल दावानलजालदीपिता कियत्फलत्यत्र वनद्रुमाली ॥१७४ ये शीतातपवातजातविविधक्लेशैस्तपोविस्तरैरात्मानं परिपीडयन्ति नियतं सन्तीह ते सर्वतः । दुःप्रापः स तु कोऽपि यस्य वदने नैषा मृषा वाक् क्वचिद् धत्ते केलिमशेषशोकजननी दारिद्रमुद्रावनी ॥१७५ वितथवचनलीलालालितं वक्त्रमेतद् व्रजति विशदिमानं नागवल्ल्यादिभिः किम् । किमुत गगनगङ्गानीरधारासहौः स्नपितमपि विशुद्धि याति मद्यस्य भाण्डम् ॥१७६ सत्यवाक्याज्जनः सर्वो भवेद्विश्वासभाजनम्। कि न रथ्याम्बु दुग्धाब्धेः सङ्गाद दुग्धायते तराम्॥१७७ स्वात्माधीनेऽपि माधुर्ये सर्वप्राणिहितङ्करे । ब्रूयात्कर्णकटुस्पष्टं को नाम बुधसत्तमः ॥१७८ __ अब सत्यव्रतको कहते हैं-जहाँ पर लाभ, अलाभ, भय, और द्वेषसे असत्य बात नहीं कही जाती है, ज्ञानीजन उस दूसरे सत्यव्रतकी प्रशंसा करते हैं ॥१६९|| कुरूपी होना, लघुताको प्राप्त होना और निन्द्यपना आदि खोटे फलको जानकर सत्यवादी मनुष्यको शीघ्र तत्काल मिथ्या भाषण छोड़ देना चाहिए।॥१७०॥ वह असत्य-युक्त वाक्य प्रमादसे भी नहीं बोलना चाहिए, जिसके द्वारा सद्गुण जड़-मूलसे उखाड़ दिये जाते हैं । जैसे कि महावायुके द्वारा महान् वृक्ष उखाड़ दिया जाता है ॥१७१।। तत्त्वोंके जानकार पुरुषोंको असत्यसे युक्त, श्लेष अर्थवाला, धर्म और लोकसे विरुद्ध, मलिनतासे व्याप्त, ग्रामीण, और निष्ठुर वाक्य बोलना छोड़ देना चाहिए ॥१७२।। जो जिनशासनको पाकरके भी सत्य वचन नहीं बोलता है, वह मृषावादी मढ़ पुरुष किस गतिको जायगा ? यह हम नहीं जानते हैं ॥१७३।। असत्य भाषासे युक्त दयारूपी लता कहीं पर भी मनोवांछित फलको नहीं उत्पन्न करती है । दावानलको ज्वालासे प्रज्वलित वनवृक्षोंकी पंक्ति क्या कभी फलती है ? नहीं फलती ॥१७४।। जो शीत आतप और वात-जनित नानाप्रकारके क्लेश देनेवाले तपोंके विस्तारसे अपनी आत्माको पीड़ित करते हैं, निश्चयसे ऐसे लोग इस लोकमें सर्व ओर मिलते हैं। किन्तु कोई वह मनुष्य मिलना कठिन है जिसके कि मुखमें समस्त क्लेशोंकी जननी और दरिद्रताको प्रकट करनेवाली मृषावाणी क्रीड़ा नहीं करती है ॥१७५।। असत्य वचन बोलनेकी लीलासे लालिमायुक्त यह मुख क्या नागवल्ली (ताम्बूल) आदिके खानेसे विशदतारूप लालिमाको प्राप्त हो सकता है ? कभी नहीं। क्या मद्यका पात्र आकाशगंगाके जलकी सहस्रों धाराओं में स्नान करानेपर भी विशुद्धिको प्राप्त होता है ? कभी नहीं ॥१७६॥ सत्य वाक्य बोलनेसे सभी मनुष्य सबके विश्वास-भाजन होते हैं । क्या गलीकूचेका जल क्षीरसागरके संगसे दूधके समान नहीं हो जाता है ? अवश्य हो जाता है ।।१७७।। सर्वप्राणियोंके हितकारक मधुर वचन बोलनेसे स्वात्माधीन होनेपर भी कौन ज्ञानीपुरुष स्पष्टरूपसे (जानकर) कर्णकटु वचन बोलेगा? कोई भी नहीं बोलेगा ॥१७८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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