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________________ श्रावकाचार-सारोबार एक: करोति हिसां भवन्ति फलभागिनो बहवः । बहवो विदधति हिंसां हिंसाफलभुग भवत्येकः ॥१५८ अमृतत्वहेतुभूतं परममहिसारसायनं लब्ध्वा। अवलोक्य वालिशानामसमंजसमाकुलैनं भवितव्यम॥१५९ सूक्ष्मो भगवद्धर्मो धमार्थ हिंसने न दोषोऽस्ति।इतिधर्ममुग्धहृदयेनं जातु भूत्वा शरीरिणो हिस्याः॥१६० पूज्यनिमित्तं घाते छागादीनां न कोऽपि दोषोऽस्ति। इति सम्प्रधार्य कार्य नातिथये सत्त्वसंजपनम॥१६१ धर्मो हि देवताभ्यः प्रभवति ताभ्यः प्रदेयमिति सर्वम् । इति दुर्विवेकफलितां धिषणां प्राप्य न देहिनो हिस्याः ॥१६२ बहुसत्त्वघातजनितादशनाद्वरमेकसत्त्वघातोत्थम् । इत्याकलय्य कार्य न महासत्त्वस्य हिंसनं जातु॥१६३ रक्षा भवति बहूनामेकस्यैवास्य जीवहरणेन । इति मत्वा कर्तव्यं न हिंसनं हिंस्रसत्त्वानाम् ॥१६४ बहुसत्त्वघातिनोऽमी जीवन्त उपार्जयन्ति गुरु पापम् । इत्यनुकम्पां कृत्वा न हिंसनीया शरीरिणो हिंस्राः ॥१६५ बहुदुःखाः संज्ञपिताः प्रयान्ति त्वचिरेण दुःखविच्छित्तिम् । इति वासनाकृपाणोमादाय न दुःखिनोऽपि हन्तव्याः॥१६६ कृच्छण सुखावाप्तिभवन्ति सुखिनो हताः सुखिन एव। इति तर्कमण्डलानः सुखिनां घाताय नादेयः।१६७ दृष्ट्वा परं पुरस्तादशनाय क्षामकुक्षिमायान्तम् । निजमांसदानरभसादालभनीयो न चात्मापि॥१६८ मन्दफल देती है ॥१५७।। एक जीव हिंसाको करता है, परन्तु फल भोगनेके भागी अनेक होते हैं। इसी प्रकार अनेक जीव हिंसाको करते हैं, किन्तु हिंसाके फलका भोगने वाला एक ही पुरुष होता है ॥१५८॥ अमृत पद मोक्षके कारणभूत परम अहिंसाधर्मरूपी रसायनको पाकरके भी अज्ञानी जनोंके असंगत व्यवहारको देखकर ज्ञानी जनोंको आकुल-व्याकुल नहीं होना चाहिए ॥१५९॥ 'भगवान्के द्वारा प्रणोत धर्म सूक्ष्म है, धर्म-कार्यके लिए हिंसा करनेमें दोष नहीं है' इस प्रकार धर्म-विमूढ़ हृदयवाले होकर कभी किसी प्राणीकी हिंसा नहीं करनी चाहिए ॥१६०।। 'अतिथि आदि पूज्य पुरुषके भोजनके निमित्तसे बकरे आदि जीवोंका घात करनेमें कोई दोष नहीं है' ऐसा विचार करके अतिथिके लिए भी किसी प्राणोका घात नहीं करना चाहिए ॥१६१।। 'धर्म देवताओंसे प्रकट होता है, अतः उनके लिए इसको लोकमें सभी कुछ देनेके योग्य है' इस प्रकारकी दुविवेक-युक्त बुद्धिको धारण करके किसी भी प्राणीका घात नहीं करना चाहिए ॥१६२॥ छोटे-छोटे बहुत प्राणियोंके घातसे उत्पन्न हुए भोजनकी अपेक्षा एक बड़े प्राणीके घातसे उत्पन्न हुआ भोजन उत्तम है' ऐसा विचार करके भी किसी बड़े प्राणीकी हिंसा कभी भी नहीं करनी चाहिए ॥१६३।। इस एक ही हिंसक प्राणीके मार देनेसे बहुत प्राणियोंकी रक्षा होती है, ऐसा मान करके हिंसक प्राणियोंकी हिंसा नहीं करनी चाहिए ॥१६४।। अनेक प्राणियोंके घातक ये सिंहादिक जीवित रहते हुए भारी पापका उपाजन करते हैं। ऐसी अनुकम्पा करके भी हिंसक प्राणियोंको नहीं मारना चाहिए ॥१६५।। 'मारे गये बहुत दुःखी प्राणी शीघ्र ही दुःखसे छूट जावेंगे,' इस प्रकार मिथ्या वासनारूपी कटारको लेकर के दुःखी भी प्राणियोंको नहीं मारना चाहिए ॥१६६॥ 'सुखकी प्राप्ति बड़े कष्टसे होती है, अतएव मारे गये सुखी लोग परलोकमें भी सुखी ही उत्पन्न होंगे' ऐसा तर्करूपी खड्ग सुखी जनोंके धात करनेके लिए नहीं ग्रहण करना चाहिए ॥१६७।। कृश उदरवाले किसी भूखे पुरुषको सामने आता हुआ देखकर अपने शरीरके मांसको दान करनेकी इच्छासे वेग पूर्वक अपने आपका भी घात नहीं करना चाहिए ॥१६८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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