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________________ ३४६ श्रावकाचार-संग्रह पाठीनस्य किलैकस्य रक्षणात्पञ्चधापदः । व्यतीत्य सम्पदं प्रापद् धनकोतिर्मनीषिताम् ॥१४७ जिनपतिपदे स्फीता भक्तिर्घना नृपमानता रतिपतिसमं रूपं चन्द्रप्रभाप्रतिभं यशः। श्रुतं विकलं रम्या रामा गृहे परमा रमा कुलमपमलं सर्वं यत्तद्दयावततीफलम् ॥१४८ जीवातुः शुभसम्पदा शमवनी-कादम्बिनी शर्मणां खानिनिकलाऽवनिर्भवलसत्सन्तापशैलाशनिः। दुःखाब्धेस्तरणिविमुक्तिसरणिः स्वर्गस्य निःश्रेणिका भूतेषु क्रियतां कृपा किमपरैस्तैस्तैस्तपोविस्तरैः१४९ छेदनं ताडनं बन्धो बहुभाराधिरोपणम् । रोधोऽन्नपानयोः पञ्चातीचाराः प्रथमव्रते ॥१५० उक्तं चामृतचन्द्रसूरिभि:अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवहिसेति । तेषामेवोत्पत्तिहिसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥१५१ युक्ताचरणस्य सतो रागाद्यावेशमन्तरेणापि । न हि भवति जातु हिंसा प्राणव्यपरोपणादेव ॥१५२ व्युत्थानावस्थायां रागादीनां वशप्रवृत्तायाम् । म्रियतां जीवो मा वा धावत्यग्रे ध्रुवं हिंसा ॥१५३ यस्मात्सकषायः सन् हन्त्यात्मा प्रथममात्मनाऽऽत्मानम्।पश्चाज्जायेत नवा हिंसा प्राण्यन्तराणां तु १५४ अविधायापि हि हिंसां हिंसाफलभाजनं भवत्येकः । कृत्वाप्यपरो हिंसां हिंसाफलभाजनं न स्यात्॥१५५ । एकस्याल्पा हिंसा ददाति काले फलमनल्पम् । अन्यस्य महाहिंसा स्वल्पफला भवति परिपाके ॥१५६ एकस्य सैव तीवं दिशति फलं सैव मन्दमन्यस्य। व्रजति सहकारिणोरपि हिंसा वैचित्र्यमत्र फलकाले१५७ बार रक्षा करनेसे धनकीत्ति पांच प्रकारकी आपदाओंको पार करके मनोवांछित सम्पदाको प्राप्त हुआ ॥१४७॥ जिनेन्द्र देवके चरणोंमें उत्तम भक्ति होना, अच्छी राजमान्यता प्राप्त होना, रतिपति (कामदेव)के समान रूप मिलना, चन्द्रमाको प्रभाके सदृश निर्मल यश फैलना, अविकल श्रुतज्ञान पाना, सुन्दर रामा पाना, घरमें भर-पूर लक्ष्मी रहना, और निर्मल कुल पाना, ये सब दयारूपी वेलिके फल हैं ॥१४८|| शुभ सम्पदाओंकी संजीविनी औषधि, शमभावोंकी वनस्थलीके लिए मेघमाला, सुखोंकी खानि, ज्ञानकलाकी भूमि, भव-जनित सन्ताप रूप शैलोंको विनाश करनेके लिए अशनि (वज्र), दुःख-सागरको तिरनेके लिए नौका, विमुक्तिकी श्रेणी (सीढ़ी) और स्वर्गकी नसेनी ऐसी एक दया ही प्राणियोंपर करनी चाहिए । अन्य दूसरे उन उन तपोंके विस्तारसे क्या प्रयोजन है ? भावार्थ-सभी मनोरथ एक मात्र जीवदयासे ही सिद्ध हो जाते हैं ॥१४९।। इस अहिंसाणुव्रतके ये पांच अतिचार हैं-किसी भी प्राणीके अंगोंका छेदन करना, ताड़ना देना, बांधना, अधिक भार लादना और अन्न-पानका निरोध करना इन्हें नहीं करना चाहिए ॥१५०॥ ___ आचार्य अमृतचन्द्रसूरिने कहा है-रागादि भावोंका उत्पन्न नहीं होना ही अहिंसा है और उनका उत्पन्न होना ही हिंसा है। इतना ही जैन आगमका सार है ।।१५१॥ प्रमाद-रहित होकर सावधानीपूर्वक योग्य आचरण करनेवाले सन्त पुरुषके रागादि भावोंके आवेशके विना केवल प्राणोंका घात होने से हिंसा कभी नहीं कहलाती है ॥१५२॥ किन्तु प्रमाद-अवस्थामें रागादि भावोंके आवेशसे अयत्नाचारी प्रवृत्ति होनेपर जीव मरे, या न मरे, किन्तु हिंसा निश्चयसे आगे ही दौड़ती है ॥१५३॥ क्योंकि प्रमादपरिणत जीव कषाय-सहित होकर पहले अपने द्वारा अपना ही घात करता है, फिर पीछे भले ही अन्य प्राणियोंको हिंसा हो, या न हो ॥१५४॥ कोई जीव हिंसाको नहीं करके भी हिंसाके फलका भागी होता है और दूसरा हिंसा करके भी हिंसाके फलका भागी नहीं होता ॥१५५॥ किसी जीवके तो की गयी अल्प भी हिंसा उदय कालमें बहुत फलको देती है और किसी जीवके महा-हिंसा भी उदयके परिपाक समय अत्यल्प फलको देती है ।।१५६॥ एक साथ दो व्यक्तियोंके द्वारा मिलकरके की गयी भी हिंसा उदय-कालमें विचित्रताको प्राप्त होती है । अर्थात् वही हिंसा एकको तीव्र फल देती है और दूसरेको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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