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________________ लाटीसंहिता केवलेनाग्निना पक्वं मिश्रितेन घृतेन वा । उषितानं न भुञ्जीत पिशिताशनदोषवित् ॥ ३३ तत्रातिकाल मात्रत्वे परिणामगुणात्तथा । सम्मूच्छर्यन्ते त्रसाः सूक्ष्माः ज्ञेयाः सर्वविदाज्ञया ॥३४ शाकपत्राणि सर्वाणि नादेयानि कदाचन । श्रावकैर्मासदोषस्य वर्जनार्थं प्रयत्नतः ॥ ३५ तत्रावश्यं त्रसाः सूक्ष्माः केचित्युर्दृष्टिगोचराः । न त्यजन्ति कदाचित्तं शाकपत्राश्रयं मनाक् ॥३६ तस्माद्धर्मार्थिना नूनमात्मनो हितमिच्छता । आताम्बूलं दलं त्याज्यं श्रावकैर्दर्शनान्वितैः ॥३७ रजन्यां भोजनं त्याज्यं नैष्ठिकैव्रतधारिभिः । पिशिताशनदोषस्य त्यागाय महदुद्यमैः ॥३८ ननु रात्रिभुक्तित्यागो नात्रोद्देश्यस्त्वया क्वचित् । षष्ठसंज्ञक विख्यातप्रतिमायामास्ते यतः ॥ ३९ सत्यं सर्वात्मना तत्र निशाभोजनवर्जनम् । हेतोः किन्त्वत्र दिग्मात्रं सिद्धं स्वानुभवागमात् ॥४० अस्ति कश्चिद्विशेषोऽत्र स्वल्पाभासोऽर्थतो महान् । सातिचारोऽत्र दिग्मात्रे तत्रातीचा रवजिताः ॥४१ भी व्रती श्रावकोंको ग्रहण नहीं करना चाहिये। जिन पदार्थों को शोध लेनेपर भी बहुत सा काल बीत गया है, मर्यादासे अधिक काल हो गया है उनको फिर अपने नेत्रोंसे देख शोधकर ग्रहण करना चाहिये ||३२|| जो रोटी, दाल आदि पदार्थ केवल अग्निपर पकाये हुए हैं अथवा पूड़ी कचौरी आदि गरम घी में पकाये हुए हैं अथवा परामठे आदि पदार्थ घी और अग्नि दोनोंके संयोग से पकाये हुए हैं ऐसे सब प्रकार के पदार्थ मांस भक्षणके दोषोंको जाननेवाले श्रावकोंको दूसरे दिन बासी नहीं खाना चाहिये ||३३|| इसका भी कारण यह है कि बासी भोजनमें मर्यादासे बाहर काल बीत जाता है इसलिये उनमें इस प्रकारका परिणमन होता है जिससे कि उनमें सूक्ष्म और सम्मूर्च्छन ऐसे त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं जो इन्द्रियोंसे दिखाई नहीं पड़ सकते, ऐसे सूक्ष्म त्रस जीव केवल सर्वज्ञदेवके द्वारा प्रतिपादन किये हुए शास्त्रोंसे ही जाने जा सकते हैं ||३४|| श्रावकोंको प्रयत्न पूर्वक मांसके दोषोंका त्याग करनेके लिये सब तरहकी पत्तेवाली शाक भाजी भी कभी ग्रहण नहीं करना चाहिये अर्थात् मैथी, पालक, चनाकी शाक, बथुआ, चौराई आदि पत्तेवाले शाक भी नहीं खाने चाहिये ||३५|| क्योंकि उस पत्तेवाले शाकमें सूक्ष्म त्रस जीव अवश्य होते हैं उनमें से कितने हो जीव तो दृष्टिगोचर होते हैं, दिखाई पड़ते हैं और कितने ही दिखाई नहीं पड़ते, परन्तु वे जीव किसी समय में भी उस पत्तेवाले शाकका आश्रय थोड़ा सा भी नहीं छोड़ते ||३६|| इसलिये अपने आत्माका कल्याण चाहनेवाले धर्मात्मा जीवोंको पत्तेवाले सब शाक तथा पानतक छोड़ देना चाहिये और दर्शन प्रतिमाको धारण करनेवाले श्रावकोंको विशेषकर इनकात्याग कर देना चाहिये ||३७|| व्रत धारण करनेवाले नैष्ठिक श्रावकों को मांस भक्षणके दोषोंका त्याग करनेके लिए बहुत बड़े उद्यमके साथ रात्रिमें भोजन करनेका त्याग कर देना चाहिये ||३८|| कदाचित् कोई यहाँपर यह शंका करे कि आपको यहांपर मूल गुणोंके वर्णनमें रात्रि भोजनके त्यागका उपदेश नहीं देना चाहिये क्योंकि रात्रि भोजनका त्याग करनेवाली छठी प्रतिमा है। छठी प्रतिमा के वर्णन में इसके त्यागका वर्णन करना चाहिये । इसके उत्तर में कहा है कि यह बात ठीक है परन्तु उसके साथ इतना और समझ लेना चाहिये कि छठो प्रतिमा में तो रात्रि भोजनका त्याग पूर्ण रूपसे है और यहाँपर मूल गुणोंके वर्णनमें स्थूल रूपसे रात्रि भोजनका त्याग है । मूल गुणोंमें स्थूल रूपसे भी रात्रि भोजनका त्याग करना अपने अनुभवसे भी सिद्ध है और आगमसे भी सिद्ध है ।। ३९-४०॥ यहाँपर मूलगुणों के धारण करनेमें जो रात्रि भोजनका त्याग है उसमें कुछ विशेषता है । तथा वह विशेषता मालूम तो थोड़ी होती है किन्तु उसको अच्छी तरह समझ लेनेपर वह विशेषता बहुत बडी मालूम देती है । सामान्य रीतिसे वह विशेषता यह है कि मूलगुणोंमें जो रात्रि भोजनका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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