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________________ श्रविकाचार संग्रह दुरवधानतया मोहात्प्रमादाद्वापि शोधितम् । दुःशोधितं तदेव स्याद् ज्ञेयं चाशोधितं यथा ॥२५ तस्मात्सद्व्रत रक्षार्थं पलदोषनिवृत्तये । आत्महग्भिः स्वहस्तैश्च सम्यगन्नादि शोधयेत् ॥ २५ यथात्मार्थं सुवर्णादिक्रयार्थी सम्यगीक्षयेत् । व्रतवानपि गृह्णीयादाहारं सुनिरीक्षितम् ॥२७ धर्मेणानभिज्ञेन साभिज्ञेन विर्धामणा । शोधितं पाचितं चापि नाहरेद् व्रतरक्षकः ॥ २८ ननु केनापि स्वीयेन सधर्मेण विधर्मिणा । शोधितं पाचितं भाज्यं सुज्ञेन स्पष्टचक्षुषा ॥२९ मैवं यथोदितस्योच्चैविश्वासो व्रतहानये । अनार्यस्याप्यनार्द्रस्य संयमे नाधिकारिता ॥ ३० चलितत्वात्सीम्नश्चैव नूनं भाविव्रतक्षते । शैथिल्ाद्धीयमानस्य संयमस्य कुतः स्थितिः ॥ ३१ शोधितस्य चिरात्तस्य न कुर्याद् ग्रहणं कृती । कालस्यातिक्रमाद्भूयो दृष्टिपूतं समाचरेत् ॥३२ हुए शरीर के अवयव अवश्य रहते हैं । इसलिए विना छने घी तेल आदि पदार्थ ग्रहण करने में मांस त्यागका अतिचार अवश्य लगता है । अतएव घी तेल आदि पदार्थों को भी अच्छे मजबूत दोहरे बड़े छन्ने में छानकर ही काममें लाना चाहिए ||२४|| जो अन्नादिक पदार्थ मनकी असावधानी से शोधे गये हैं, या होश हवाश रहित अवस्था में शोधे गये हैं अथवा प्रमादपूर्वक शोधे गये हैं ऐसे शोधे हुए पदार्थ भी दुःशोधित (अच्छी तरह नहीं शोधे हुए) कहलाते हैं और ऐसे दुःशोधित पदार्थ विना शोघे हुए के समान ही गिने जाते हैं ||२५|| इसलिए श्रेष्ठ व्रतोंकी रक्षा करनेके लिए और मांस भक्षणके दोषोंका त्याग करनेके लिए श्रावकोंको अन्न आदि पदार्थ अपने ही नेत्रोंसे और अपने ही हाथोंसे शोध लेना चाहिए फिर काममें लाना चाहिए ||२६|| जिस प्रकार अपने लिए सोना खरीदनेवाला पुरुष उस सोनेको बहुत अच्छी तरह देखकर खरीदता है उसी प्रकार व्रती श्रावकको भी बहुत अच्छी तरह देख शोधकर आहार ग्रहण करना चाहिए ||२७|| जो आहार शोधने या शुद्धता पूर्वक भोजन तैयार करनेकी विधिको न जाननेवाले साधर्मी द्वारा शोध हुआ है या ऐसे ही अजानकार साधर्मीके द्वारा पकाकर तैयार किया हुआ है अथवा जो शोधने या शुद्धतापूर्वक विधिको जाननेवाले विधर्मी द्वारा शोधा हुआ है या ऐसे ही जानकार विधर्मी के द्वारा पकाकर तैयार किया हुआ है ऐसा भोजन भी अपने व्रतोंकी रक्षा करनेवाले श्रावकों को कभी नहीं ग्रहण करना चाहिये ||२८|| कदाचित् यहाँपर कोई यह शंका करे कि जो मनुष्य शोधने या शुद्धता पूर्वक भोजन तैयार करनेकी विधिको जानता है और शोधने आदि कामों लिये जिसके नेत्र निर्मल हैं, जिसके नेत्रों में कोई दोष नहीं है, जिसके नेत्रोंकी ज्योति मन्द नहीं है ऐसे मनुष्यके द्वारा शोधा हुआ और पकाया हुआ भोजन ग्रहण कर लेना चाहिये वह मनुष्य अपना साधर्मी हो और चाहे विधर्मी हो । अर्थात् भोजन शुद्धतापूर्वक तैयार किया हुआ होना चाहिये चाहे वह साधर्मी द्वारा तैयार किया हुआ हो और चाहे वह विधर्मी द्वारा तैयार किया हुआ हो । भोजन तैयार करने या शोधनेमें साधर्मो या विधर्मीकी क्या आवश्यकता है ? परन्तु यह बात नहीं है । क्योंकि जो आहारको शोधने और शुद्धतापूर्वक तैयार करनेकी विधिको जाननेवाला विधर्मी हो इन दोनों प्रकारके मनुष्योंपर दृढ़ विश्वास किया जायेगा तो व्रतोंमें हानि अवश्य होगी । तथा इसका भी कारण यह है कि जो पुरुष अनार्य है अथवा निर्दय है उसको संयमके काम में संयमी रक्षा करने में कोई अधिकार नहीं है || २९-३० ॥ यदि व्रती मनुष्य अपनी सीमा या मर्यादासे चलायमान हो जायेगा तो आगे होनेवाले उसके व्रतों में अवश्य ही हानि पहुँचेगी तथा यदि वह संयम इसी प्रकार शिथिलता पूर्वक घटता जायेगा तो फिर भला उसकी स्थिरता किस प्रकार रह सकेगी ? ||३१|| जिन अन्न आदि पदार्थों को शांधे हुए कई दिन हो गये हैं ऐसे पदार्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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