SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 376
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४३ श्रावकाचार-सारोबार भर्तृबहुमानपात्रं विकचविचित्राब्जपत्रनिभनेत्राः । सुभगा भोजननियमाद रात्रेः सञ्जायते नारी ॥१२१ अणुव्रतानि पञ्च स्युस्त्रिप्रकारं गुणवतम् । शिक्षावतानि चत्वारि सागाराणां जिनागमे ॥१२२ हिंसातोऽसत्यतः स्तेयान्मैथुनाच्च परिग्रहात् । यदेकदेशविरतिस्तदणुव्रतपञ्चकम् ॥१२३ यत्कषायोदयात् प्राणिप्राणानां व्यपरोणम् । न क्वापि तदहिसाख्यं वतं विश्वहितङ्करम् ॥१२४ विलोक्यानिष्टकुष्टित्वगुपत्वादिफलं सुधीः । त्रसानां न क्वचित्कुर्यान्मनसा पि हि हिंसनम् ॥१२५ स्थावरेष्वपि सत्त्वेषु न कुर्वोत निरर्थकाम् । स्थातुं मोक्षसुखं काङ्क्षन् हिंसां हिंसापराङ्मुखः ॥१२६ स्थावराणां चतुष्कं यो विनिघ्नन्नपि रक्षति । त्रसानां दशकं स स्याद् विरताविरतः सुधीः ॥१२७ वेदनां तृणभवामपि स्वयं यो न सोढमतिमूढधीः प्रभुः । प्राणिनां भयवतां गणे कथं स क्षिपन्नसिशरान्न लज्जते ॥१२८ उक्तं च- म्रियस्वेत्युच्चमानोऽपि देही भवति दुःखितः । मार्यमाणः प्रहरणारुणः स कथं भवेत् ॥१२९ जिजीविषति सर्वोऽपि सुखितो दुःखितोऽथवा । ततो जीवनदाताऽत्र कि न दत्तं महीतले ॥१३० सद्-गुणवाले पुत्र उत्पन्न होते हैं, सदा भक्ति करनेवाले बन्धुजन प्राप्त होते हैं, रोग-रहित शरीर मिलता है, सदा स्थिर रहनेवाली सम्पदाएं प्राप्त होती हैं, सुन्दर मिष्ट रस-परिपूरित उज्ज्वल वाणी प्राप्त होती है, चन्द्रमाकी उज्ज्वल किरणोंको भी जीतनेवाली शुभ्रकीति फैलतो है और हाथी-घोड़े प्रचुर प्रमाणमें प्राप्त होते हैं ॥१२०।। जो स्त्री रात्रि में भोजन-त्यागका नियम करती है, वह उसके फलसे परभवमें अपने भर्तारके बहुसन्मानकी पात्र होती है, विकसित कमलपत्रके समान सुन्दर नेत्रवाली और सदा सौभाग्यवालो नारी होती है ।।१२१।। पाँच अणुव्रत, तीन प्रकारके गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ये बारहवत जिनागममें श्रावकोंके कहे गये हैं ॥१२२॥ हिंसासे, असत्यसे, चोरीसे, मैथुनसे और परिग्रहसे जो एकदेश विरति की जाती है, वही पांच अणुव्रत कहे जाते हैं ॥१२३।। कषायके उदयसे प्राणियोंके प्राणोंका कभी कहीं भी घात नहीं करना सो विश्वका हितकारी अहिंसा नामका व्रत है ॥१२४॥ हिंसाके कोढ़ीपना पंगुपना आदि अनिष्ट फलको देखकर बुद्धिमान् मनुष्यको कभी भी मनसे त्रस प्राणियोंको हिंसा नहीं करनी चाहिए ॥१२५।। हिंसासे पराङ्मुख रहने और स्थिर मोक्ष सुखकी इच्छा करनेवाले पुरुषको स्थावर जीवोंकी भी निरर्थक हिंसा नहीं करनी चाहिए ।।१२६॥ जो पृथ्वी, जल, अग्नि और वनस्पति इन चार स्थावरोंका घात करता हुआ भी द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञिपंचेन्द्रिय और संज्ञिपंचेन्द्रिय पर्याप्त-अपर्याप्तरूप त्रसदशककी रक्षा करता है वह बुद्धिमान् विरताविरत श्रावक होता है ।।१२७॥ जो अति मूढ़बुद्धि पुरुष तृण-जनित स्वल्प भी वेदनाको सहन करनेके लिए समर्थ नहीं है, वह भयभीत प्राणियोंके समूहपर तीक्ष्ण तलवार, बाण आदिको फेंकता हुआ क्यों नहीं लज्जित होता है ।।१२८॥ __ कहा भी है-'तुम मर जाओ' ऐसा कहे जानेपर भी जब प्राणी दुःखी होता है, तब दारुणशस्त्रोंसे मारा जाता हुआ व केसे दुःखी नहीं होगा। अर्थात् अवश्य ही भारी दुःखका अनुभव करता है ।।१२९॥ सभी सुखी या दुखी प्राणी जीनेकी इच्छा करते हैं। इसलिए जो दूसरेका जीवन-दाता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy