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________________ ३४२ श्रावकाचार-संग्रह मृते स्वजनमात्रेऽपि सूतकं जायते ध्रुवम् । अस्तंगते दिवानाथे भोजनं क्रियते कथम् ॥१०९ नोदकमपि पीतव्यं रात्रावत्र युधिष्ठिर । तपस्विना विशेषेण गृहिणा च विवेकिना ॥११० निशाशनं वितन्वानाः प्राणिप्राणक्षयङ्करम् । पिशाचेभ्योऽतिरिच्यन्ते कथं ते नात्र दुधियः ॥ १११ खादन्नर्हानशं योऽत्र तिष्ठति व्यस्तचेतनः । शृङ्गपुच्छपरिभ्रष्टः स कथं न पशुर्भवेत् ॥ ११२ वासरस्य मुखे चान्ते विमुच्य घटिकाद्वयम् । योऽशनं सम्यगाघत्ते तस्यानस्तमितव्रतम् ॥११३ अकृत्वा नियमं रात्रिभोजनं हि त्यजन्नपि । न प्राप्नोति फलं तस्माद् भव्यो नियममाचरेत् ॥ ११४ ये विमुच्य दिवा भुक्ति तमस्विन्यां वितन्वते । तेऽत्र चिन्तामणि हित्वा गृह्णन्ति खलखण्डकम् ॥ ११५ धर्मबुद्धया तमस्विन्यां भोजनं ये वितन्वते । बारोपयन्ति ते पद्मवनं वह्नो विवृद्धये ॥ ११६ निःशेषेऽह्नि बुभुक्षां ये सोढ़वा सुकृतकाङ्क्षया । भुञ्जते निशि संवध्यं कल्पागं भस्मयन्ति ते ॥११७ उक्तं च--उलूककाकमार्जारगृद्धसंबरशूकराः । अहिवृश्चिकगोघाश्च जायन्ते रात्रिभोजनात् ॥ ११८ रात्रिभुक्तिविमुक्तस्य ये गुणाः खलु जन्मिनः । सर्वज्ञमन्तरेणान्यो न सम्यग् वक्तुमीश्वरः ॥ ११९ चवन्नीरजलोचना युवतयः पुत्रा विचित्राः सदा भक्ता बन्धुजना गतामयचयः कायः स्थिराः सम्पदः । वाणी चारुरसोज्ज्वला जितशशिस्फारत्विषः कोर्तयो हस्त्यश्वाः प्रचुरीभवन्ति रजनीभुक्तिप्रमुक्ते नृणाम् ॥१२० रात्रिमें आहारका त्याग करते है उनके एक मासमें एक पक्षके उपवासका फल प्राप्त होता है ||१०८|| अपने एक स्वजनके मृत अर्थात् दिवंगत हो जानेपर जब नियमसे सूतक लगता है, तब दिवानाथ (सूर्य) के अस्तंगत हो जानेपर भोजन कैसे करना चाहिए || १०९ ॥ हे युधिष्ठिर, इस रात्रिके समय विवेकी गृहस्थको और विशेषरूपसे तपस्वीको पानी भी नहीं पीना चाहिए ॥११०॥ प्राणियोंके प्राणोंका क्षय करनेवाले रात्रि भोजनको करते हुए दुर्बुद्धि मनुष्य इस लोक में पिशाचोंसे भी गये बीते कैसे नहीं है ? अर्थात् अवश्य है ॥ १११ ॥ जो मस्त चेतनावाला पुरुष इस लोकमें दिन-रात खाता रहता है, वह सींग और पूँछसे रहित पशु कैसे न माना जाय ? अर्थात् उसे तो पशु मानना ही चाहिए ||११२|| जो मनुष्य दिनके प्रारम्भमें और अन्तमें दो घड़ी समय छोड़ करके दिनके सम्यक् प्रकाशमें भोजन करते हैं, उनके ही अनस्तमितव्रत अर्थात् रात्रि भोजनका त्याग जानना चाहिए ॥११३॥ नियम न करके रात्रिभोजनको नहीं करता हुआ भी पुरुष रात्रिभोजन त्यागके फलको नहीं पाता है, इसलिए भव्य पुरुषको रात्रिभोजन त्यागका नियम लेना चाहिए ॥ ११४ ॥ जो लोग दिनमें भोजन छोड़कर अंधेरी रात्रिमें भोजन करते हैं, वे लोग यहाँ चिन्तामणिरत्नको छोड़कर खलीके खंडको ग्रहण करते हैं ||११५ || जो पुरुष धर्मबुद्धिसे रात्रिमें भोजन करते हैं, मानों वे कमलवनको बढ़ानेके लिए उसे अग्निमें रखते हैं ॥ ११६ ॥ जो सारे दिन भूखको सहन करके पुण्यको वांछासे रात्रिमें खाते हैं, वे मानों कल्पवृक्षको बढ़ाकर अग्निमें भस्म करते हैं ॥११७॥ कहा भी है- रात्रिमें भोजन करनेसे उलूक, काक, मार्जार, गिद्ध, श्वापद, शूकर, सर्प, वृश्चिक और गोधा आदि जानवर होते हैं ॥११८॥ रात्रिभोजनके त्याग करनेवाले मनुष्यके जो गुण होते हैं, उन्हें सर्वज्ञके विना अन्य कोन पुरुष कहनेके लिए समर्थ है | कोई भी नहीं ॥ ११९ ॥ रात्रिके भोजनका त्याग करनेपर मनुष्योंको पर भवमें विकसित कमलके समान लोचनवाली युवती स्त्रियां प्राप्त होती हैं, विविध प्रकारके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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