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________________ ३४ श्रावकाचार-सारोबार पर्यटन्तो तिकौटिल्यपटवो यत्र कुर्वते । उच्छिष्टमन्नं प्रेताद्यास्तत्र भुञ्जीत को निशि ॥९७ प्रसर्पति तमःपूरे पतन्तः प्राणिनो भृशम् । यत्रान्ने नावलोक्यन्ते तत्र रात्रौ न भुज्यते ॥९८ मक्षिका तनुते छदि कुष्टव्याधि च कोलिकः । मेधां पिपीलिकाऽवश्यं निर्वासयति भक्षिता ।।९९ दन्तभङ्गं दृषत्खण्डं कुरुते गोमयो घृणाम् । भोज्ये च पतिता यूका वितनोति जलोदरम् ॥१०० शिरोरुहः स्वरप्वंसं कण्ठपीडां च कण्टकः । वृश्चिकस्तालुभङ्गं च तनुते नात्र संशयः ॥१०१ यतोऽन्येऽपि प्रजायन्ते दोषा वाचामगोचराः । विमुञ्चन्तु ततः सन्तः पापकृत्तनिशाशनम् ॥१०२ उक्तं च परमतेत्रयो तेजोभयो भानुरिति वेदविदो विदुः । तत्करैः पूतमखिलं शुभं कर्म समाचरेत् ॥१०३ नैवाहुतिर्न च स्नानं न श्राद्धं देवतार्चनम् । दानं वा विहितं रात्रौ भोजनं तु विशेषतः ॥१०४ दिवसस्याष्ट मे भागे मन्दीभूते दिवाकरे । तं नक्तं हि विजानीयान्न नक्तं निशिभोजनम् ॥१०५ देवैस्तु भुक्तं पूर्वाह्न मध्याह्न ऋषिभिस्तथा । अपराले तु पितृभिः सायाह्न दैत्यदानवैः ॥१०६ सन्ध्यायां यक्षरक्षोभिः सदा भुक्तं कुलोद्वह । सर्ववेलां व्यतिक्रम्य रात्रौ भुक्तमभोजनम् ॥१०७ ये रात्रौ सवंदाहारं वर्जयन्ति सुमेधसः । तेषां पक्षोपवासस्य फलं मासेन जायते ॥१०८ छोड़े और त्याग किये अन्नका सेवन यदि भूलसे हो जाय, तो ज्ञात होते ही उसका खाना छोड़ देवे ।।९६।। जिस रात्रिके समय पर्यटन करनेवाले और कुटिलतामें अति पटु ऐसे प्रेत-राक्षस आदि अन्नको उच्छिष्ट कर देते हैं, ऐसी उस रात्रिमें कौन भोजन करेगा? अर्थात् कोई भी नहीं ॥१७॥ जिस रात्रिमें अन्धकारके प्रसार होनेपर अन्नमें प्रचुरतासे गिरनेवाले प्राणी दिखाई नहीं देते हैं, ऐसी रात्रिमें नहीं खाना चाहिए ।।९८॥ रात्रिमें भोजन करते समय नहीं दिखाई देनेसे यदि मक्खी खायी जावे तो तत्काल वमन करा देती है, मकड़ी कुष्ट व्याधि करती है, और कीड़ी-मकोड़ा अवश्य ही मेधाका विनाश करते हैं ।।१९।। पत्थरका खण्ड दन्त भंग कर देता है, गोबर घृणा पैदा करता है, और भोजनमें गिरी हुई जू जलोदरको करती है ॥१००॥ बाल स्वरके भंगको और कांटा यदि खाया जावे तो कण्ठकी पीडाको करता है। यदि बिच्छ खानेमें आ जाय तो ताल-भंग करता है, इसमें कोई सन्देह नहीं है ।।१०१॥ यतः इसी प्रकारके अन्य भी वचनके अगोचर अगणित दोष रात्रि-भोजन करनेसे उत्पन्न होते हैं, अतः सन्त पुरुषोंको महापापकारी रात्रि भोजन छोड़ देना चाहिए ॥१०॥ अन्यमतके शास्त्रोंमें भी कहा है वेदके वेत्ता पुरुष सूर्यको तीन लोकमें तेजोमय कहते हैं। उस सूर्यको किरणोंसे पवित्र हुए समयमें हो सभी शुभ कर्म करना चाहिए ॥१०३।। रात्रिमें न आहुति-हवन, विहित (शास्त्र-प्रतिपादित) है, न स्नान, न श्राद्ध, न देवताका पूजन और न दान विहित है। अर्थात् वे कार्य करना निषिद्ध है । फिर भोजन तो विशेषरूपसे निषिद्ध है ।।१०४॥ दिनके अष्टम भागमें जब सूर्य मन्द प्रकाशवाले हो जाते हैं, उसे नक्त अर्थात् रात्रि जाननी चाहिए । रात्रिमें खाना ही नक्त-भोजन नहीं है। किन्त सर्यके प्रकाश मन्द हो जानेपर खाना भी नक्त भोजन में परिगणित समझना चाहिए ॥१०५।। देव लोग तो पूर्वालके समय भोजन करते हैं, ऋषि लोग मध्याह्नके समय, पितृगण अपराहुके कालमें और दैत्य-दानव सायंकालमें भोजन करते हैं ॥१०६॥ हे कुलपुत्र, यक्ष-राक्षस सन्ध्याके समय सदा भोजन करते हैं । उपर्युक्त सर्व वेलाओंको अतिक्रम करके रात्रिमें खाना तो अभोजन है, अर्थात् राक्षस-पिशाचोंसे भी गर्हित भोजन है ॥१०७॥ जो सद्-बुद्धिवाले पुरुष सदा ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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